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________________ ३२२ गाथा-४५ मुमुक्षु – कैसे देखना यह सिखलाते हैं ? उत्तर – आत्मा कैसे देखना ऐसा सीखता है। कहो, समझ में आया? मूर्ति को मर्ति मानना. परमात्मा नहीं मानना. यही यथार्थ जान है। जो व्यवहार में मग्न रहता है, वह मूल तत्त्व को नहीं पहचानता। है न? उस व्यवहार में वहीं का वहीं मग्न रहे तो वह आत्मा को नहीं देखता। यह भगवान तिरा देंगे.... शाम, सबेरे, दोपहर तीन-तीन घण्टे वहीं का वहीं भगवान के पास (बैठा रहे), जय भगवान, जय भगवान (करे)। वहाँ नहीं, यहाँ अन्दर देख। समझ में आया? व्यवहार से निश्चय प्राप्त नहीं होता – ऐसा कहते हैं। तथापि व्यवहार है अवश्य । समझ में आया? हैं ? मुमुक्षु – यह योगसार कभी पढ़ा नहीं। उत्तर – नहीं, कभी पढ़ा नहीं, पहली बार पढ़ा जाता है। व्यवहार वास्तव में अभूतार्थ और असत्यार्थ है। जैसा मूल पदार्थ है, वैसा उसे नहीं कहता। इस ओर है, भाई ! १८५ में । व्यवहार तो वास्तव में असत्यार्थ है। वहाँ भगवान है आत्मा? वह तो असत्यार्थ है आत्मा, यह आत्मा स्वयं सत्यार्थ यहाँ है, समझ में आया? दृष्टान्त अभी दिया है। व्यवहार में जीव नारकी, पशु, मनुष्य, देव कहलाता है। निश्चय से ऐसा कहना असत्यार्थ है। आत्मा नारकी, मनुष्य, पशु है? वह तो व्यवहार से बतलाया। वास्तव में तो झूठा है। आत्मा न तो नारकी है न पशु है न मनुष्य है न देव है। शरीर के संयोग से व्यवहारनय से आत्मा के भेद व्यवहार चलाने के लिए किये गये हैं। व्यवहारनय के.... व्यवहारनय के व्यवहार चलाने के लिए भेद किये गये हैं, निश्चय के लिए नहीं। जैसे तलवार लोहे की होती है। सोने की म्यान में तो सोने की तलवार, चाँदी की म्यान में चाँदी की तलवार, पीतल की म्यान में पीतल की तलवार कहलाती है – यह कहना सत्य नहीं है। सत्य है ? यह तो निमित्त से बात है। सब तलवारें एक ही हैं। उनमें भेद करने के लिए सोना, चाँदी व पीतल की तलवार ऐसा कहना पड़ता है। ऐसी सब बहुत लम्बी बात है। परमात्मदेव को ही आप देखता है। लो! इसी तरह जो अपने देहरूपी मन्दिर
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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