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योगसार प्रवचन (भाग-१)
३२१ जीतनेवाला वीतराग होनेवाला तो भगवान आत्मा स्वयं है। जिनदेव तो आत्मा है। यह जिनदेव पर में नहीं रहता। कहो, समझ में आया? मुझे मेरे अन्दर मुझे मेरे द्वारा ही देखना चाहिए। यही आत्मदर्शन निर्वाण का उपाय है। आत्मा का दर्शन निर्वाण का उपाय है। कहीं भगवान का दर्शन निर्वाण का उपाय नहीं है.... बाहर की भक्ति, निर्वाण का उपाय नहीं है।
दृष्टान्त दिया है सिंह की मूर्ति को साक्षात् सिंह मानकर पूजा करे कि यह सिंह मुझे खा जाएगा तो उसे अज्ञानी ही कहते हैं। सिंह खा जाएगा? ऐसे भगवान तिरा देंगे? ऐसा यहाँ कहते हैं, भाई! सिंह देखकर खा जाएगा - ऐसा माने तो मूढ़ है, वह तो स्थापना है। इसी प्रकार यह भगवान मुझे तार देंगे अन्दर का भाव, वह मूढ़ है। वहाँ कहाँ तेरा भाव था? सुनते हैं न इतने वर्ष से? ३१ वर्ष हुए। हैं ? इसका पक्का हृदय कठिन है। कहो, समझ में आया? ज्ञानी जानता है कि सिंह की मूर्ति का आकार उसकी क्रूरता
और भयंकरता बताने के लिए एकमात्र साधन है.... सिंह के स्वरूप को दिखाने के लिए एक निमित्त है। उस सिंह का स्वरूप, हाँ! वह साक्षात् सिंह नहीं है, इससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। साक्षात् सिंह का लाभ नहीं है। सिंह का स्वरूप बताने के लिए सिंह की मूर्ति परम सहायक है। निमित्त है। जो शिष्य सिंह के आकार और उसकी भयंकरता से अनजान है, उसे सिंह का ज्ञान कराने के लिए सिंह की मूर्ति प्रयोजनवान है। यह निमित्त है। इसी प्रकार जब तक स्वयं के अन्दर परमात्मा का दर्शन न हो, तब तक यह जिनमूर्ति परमात्मा का दर्शन कराने के लिए निमित्तकारण है।
यह (सिंह) सब खा जाएगा... ऐसे यह मुझे तिरा देंगे... वे कहते हैं न? गाय कहीं दूध देगी? सिंह कुछ मारेगा? गाय कहाँ है वहाँ ? वह तो स्थापना है। समझ में आया? स्थानकवासी यह दृष्टान्त देते हैं। गाय कुछ दूध नहीं देती, सिंह कुछ नहीं मारता और भगवान कुछ तिरा नहीं देते। तीनों देते हैं, तीन बात कहते हैं। कौन कहता है कि यह गाय सच्ची है और कौन कहता है कि वहाँ भगवान सच्चे हैं, वह तो निमित्त हुआ। उन भगवान का आत्मा कैसा? यह जानने का निमित्त हुआ और फिर ऐसा ही आत्मा मैं हूँ – ऐसा अन्तर्मुख देखे तो होता है। समझ में आया? वाद-विवाद करे सो अन्धा' हैं?