________________
३२०
गाथा -४५
है ? वह कहता है परन्तु उपादान भगवान के पास है, हाँ ! सम्यग्ज्ञानी के पास उपादान का पूछें तो वे उपादान से कहेंगे ।
यहाँ कहते हैं वास्तव में घड़े में मिट्टी का आकार है। क्या कहते हैं ? घड़े में मिट्टी का आकार आया है। कुम्हार में आकार आया है ? शक्ल समझे न ? आकार... उसकी आकृति... मिट्टी में कुम्हार की आकृति आयी है ? या मिट्टी आयी है ? मिट्टी का ढेर ही घड़ेरूप हुआ है। मिट्टी का जो ढेर था, वह घड़ारूप हुआ है या कुम्हार घड़े के रूप में हुआ है ? कुम्हार के योग और उपयोग मात्र निमित्त है, इसी प्रकार तीर्थस्वरूप जिन प्रतिमाएँ केवल निमित्त है, उनके द्वारा अपना शुद्ध आत्मा जैसा परमात्मा, अरिहन्त और सिद्ध का स्मरण हो जाता है। इतना.... परमात्मा ऐसे आत्मा थे, ऐसा स्मरण का एक निमित्त है ।
वास्तव में वह क्षेत्र प्रतिमा, मन्दिर सब अचेतन जड़ हैं तो भी चेतन का स्मरण कराने के लिए निमित्त है । अर्थात् स्मरण करे तो निमित्त कहलाते हैं। वही उनका स्मरण, हाँ! परमात्मा भगवान का नहीं। इसलिए उनकी भक्ति द्वारा परमात्मा की भक्ति की जाती है। उनकी भक्ति द्वारा अर्थात् परमात्मा सर्वज्ञ की, हाँ ! मिथ्यादृष्टि जीव विचार नहीं करता कि वास्तविक बात क्या है ? वह मन्दिर और मूर्ति को ही देव मानकर पूजता है, इस कारण आगे विचार नहीं करता कि प्रतिमा तो अरहन्त और सिद्ध पद के ध्यानमय भाव का चित्र है, वह भाव की स्थापना है । किसके भाव की ? भगवान के भाव की । वह साक्षात् देव नहीं है । वह साक्षात् देव भी नहीं तो यह आत्मा देव, वहाँ कहाँ से आया ? कहो, समझ में आया ?
फिर इन्होंने जरा ऐसा लिया है, भक्त कहीं पत्थर के गुण नहीं गाते । भगवान भावनिक्षेप से कौन है ? उनके वहाँ गुण गाते हैं। मूर्ति को देखकर (कहते हैं) भगवान तुम ऐसे हो, ऐसे हो, ऐसे हो । लो, समझ में आया ?
सम्यग्दृष्टि सदा जानता है और अनुभव करता है कि जब मैं मेरे अन्दर शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से देखता हूँ तो मुझे मेरा आत्मा ही परमात्मा जिनदेव दिखता है। अपना परमात्मा देखने में तो अन्तरदृष्टि करे तो देखे तो जिनदेव तो यहाँ है। राग को