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गाथा-४५
उत्तर – बिल्कुल नहीं होता, इसके लिए तो यहाँ बात करते हैं। ऐसा देखे, ऐसा नहीं होता। फिर भी यह देखना है अवश्य; जहाँ तक पूर्ण अपने स्वरूप में स्थिर न हो, वहाँ तक ऐसा व्यवहार आये बिना नहीं रहता, व्यवहार को न माने (और) एकान्त, निश्चय माने तो वह मूढ़ है और उस व्यवहार द्वारा आत्मा को देखेगा – ऐसा माने तो भी मूढ़ है। कहो?
सब कोई कहते हैं कि तीर्थ में या मन्दिर में जिनदेव है। जो कोई देहरूपी मन्दिर में जिनदेव को देखता है या मानता है, सो कोई ज्ञानी ही होता है। ज्ञानी, कोई धर्मात्मा (देहरूपी) मन्दिर में आत्मा देखता है। समझ में आया? भगवान आत्मा अन्दर पूर्णानन्द का नाथ है, उसे इस देहदेवालय में देखता है, वह ज्ञानी है। दूसरा अज्ञानी वहाँ भगवान देखता है, वह अज्ञानी है – ऐसा कहते हैं। व्यवहाररूप से जाने वह ज्ञानी है। व्यवहाररूप से जाने कि भक्ति है, शुभव्यवहार है, भगवान की स्थापना है, भगवान यहाँ साक्षात् विराजमान नहीं है। हमारे भगवान का मुझे उपकार वर्तता है, हमारे उपकारी का भाव प्रसिद्ध करने के लिए भगवान की मूर्ति की भक्ति है – ऐसा जाने तो वह अज्ञानी नहीं है, परन्तु उससे मेरा कल्याण, केवलज्ञान अन्दर हो जाएगा या समकित होगा - ऐसा वहाँ भगवान को माने तो वह मूढ़ अज्ञानी है – ऐसा कहते हैं । कहो, समझ में आया? कहो, भगवानभाई!
(संवत्) १९८२ में कहा था, एक भाई थे न ! वे कैसे, 'मणिलाल सुन्दरजी' या क्या नाम (था)? 'मणिलाल सुन्दरजी' बढ़वानवाले वैद्य, वैद्य थे? १९८२ में बढ़वान में चतुर्मास था न? बढ़वान... फिर रात्रि में बैठे थे, पाँच, सात, दस व्यक्ति बैठे थे फिर कहा, देखो! भाई! ऐसी बात है। एक व्यक्ति ने (दूसरे के) पिता को सौ रुपये दिये। अब वह दिये (इसलिए) नाम में ऊपरी रूप से लिखा था। बहुत विस्तार नहीं, फिर दोनों मर गये। तब (जिसने) सौ रुपये दिये (उसने कहा) मेरे पिता ने तेरे पिता को दस हजार रुपये दिये थे (उसने) सौ के ऊपर दो शून्य चढ़ाये, सौ रुपये दिये थे फिर दो शून्य चढ़ाकर दस हजार (किये और कहा) तेरे पिता को मेरे पिता ने दस हजार रुपये दिये थे, लाओ। दूसरा लड़का कहता है कि मैं बहियाँ देखूगा। बहियों में देखा तो सौ निकलते हैं परन्तु यदि सौ स्वीकार