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योगसार प्रवचन (भाग-१)
३१७ कोई देहरूपी मन्दिर में जिनदेव को देखता या मानता है ( सो को वि बुहु हवेइ) सो कोई ज्ञानी ही होता है।
ज्ञानी ही शरीर मन्दिर में परमात्मा को देखता है। शरीररूपी आत्मा का मन्दिर, यह आत्मा वहाँ देखता है, किसी दूसरे मन्दिर में यह आत्मा नहीं दिखता। यहाँ देखने' से शुरु किया है । वह नहीं देखता था, ऐसा था। समझ में आया? नहीं देखता था, ऐसा है, इसमें देव है अब देखता है यहाँ – ऐसा कहते हैं।
तित्थइ देउलि देउ जिणु सव्वु वि कोई भणेइ।
देहा-देउलि जो मुणइ सो बुहु को वि हवेइ॥४५॥
सब कोई कहते हैं कि तीर्थ में अथवा मन्दिर में जिनदेव है। अज्ञानी सब ऐसा कहते हैं कि भगवान वहाँ विराजते हैं। दूसरे आक्षेप करते हैं देखो! तुम्हारे में ऐसा लिखा है। अरे! सुन न अब, भाई! यह तो स्थापना निक्षेप को आत्मा वहाँ मान लेता है। उसे भावनिक्षेप माने वह तो भूल है, स्थापना में भाव भगवान है – ऐसा माने वह भूल है परन्तु उस स्थापना में यह आत्मा माने तो यह बड़ी भूल है – ऐसा कहते हैं, यहाँ तो यह बात है। समझ में आया? और स्थापना नहीं है – ऐसा माने तो भी वह मूढ़ जीव है। वस्तु नहीं कुछ? स्वयं को जब तक पूर्ण वीतरागता न हो, तब तक अशुभ से बचने के लिए, (ऐसा) भाषा में व्यवहार (आता है)। वरना तो शुभभाव उस काल में उस प्रकार का होता है, उस प्रकार का, हाँ! भक्ति का, ऐसा । दया का राग हो, तब दया का; स्मरण का हो, तब स्मरण का; भक्ति का उस प्रकार का राग, उस काल में आता है, होता है परन्तु यहाँ तो कहते हैं कि वहाँ तू आत्मा को देखना चाहेगा तो वहाँ आत्मा नहीं मिलेगा। समझ में आया? इसका वे तो वहाँ एकान्त मानकर आत्मा प्राप्त होगा, वहाँ से मुझे समकित होगा (ऐसा मानते हैं)। समकित तो स्वभाव सन्मुख होने से होता है, परसन्मुखता से तो व्यवहार समकित, (वहाँ) श्रद्धा का विषय पर है।
मुमुक्षु – उसे व्यवहार समकित नहीं होता?