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गाथा-४४
लो! अपना आत्मा ही स्वभाव से परमात्मा जिनदेव है। यहाँ डाला, यहाँ ही है। भगवान आत्मा वीतरागी पिण्ड आत्मा ध्रुव शाश्वत् चिदानन्दमूर्ति है, वह स्वयं ही जिनेन्द्र का स्वरूप है। जिन और जिनवर ने कोई अन्तर नहीं है। ऐसा यह जीव, वह स्वयं ही जिनेन्द्र है। इसके दर्शन अन्तर में समभाव से होते हैं। समभाव अर्थात् परसन्मुख का झुकाववाला राग.... उसे छोड़कर, स्वभावसन्मुख की श्रद्धा, ज्ञान जो समभावरूप है, उससे भगवान जिनेन्द्र दिखते हैं, उससे श्रद्धा में आते हैं, उससे ज्ञात होते हैं। आहा...हा...!
योगीन्द्रदेव मुनि थे, दिगम्बर सन्त जंगल में बसते थे, उन्होंने दुनिया को यह कहा है। यह जैनधर्म का रहस्य है। समझ में आया? इस रहस्य का धारक भगवान तू है, तेरे सन्मुख देखने से तू परमात्मा होवे ऐसा है। पर के सन्मुख देखने से तू परमात्मा होवे - ऐसा नहीं है। पराधीनतावाले को (ऐसा लगता है कि) ऐसा होगा, पर के बिना मेरे चले नहीं, पर के बिना चले नहीं, पर के लक्ष्य बिना चले नहीं, पर के ज्ञान बिना चले नहीं, पर के आधार बिना चले नहीं... वह पामर हो गया। अर्थात् उसे अपनी स्वतन्त्रता का भान नहीं है। समझ में आया? वह तो एकान्त शुभभाव का निमित्त है – ऐसा कहते हैं। इतना, समझ में आया? बाकी लम्बी-लम्बी बात की है। वह तो सब चलता है। अब ४५ (गाथा)।
ज्ञानी ही शरीर मन्दिर में परमात्मा को देखता है तित्थइ देउलि देउ जिणु सव्वु वि कोई भणेइ। देहा-देउलि जो मुणइ सो बुहु को वि हवेइ॥४५॥
तीर्थ रु मन्दिर में सभी, लोग कहे हैं देव।
बिरले ज्ञानी जानते, तन मन्दिर में देव॥ ४५ ॥ अन्वयार्थ – (सव्वु वि कोई भणेइ) सब कोई कहते हैं (तित्थइ देउलि देउ जिणु) कि तीर्थ में या मन्दिर में जिनदेव है (जो देहा-देउलि मुणइ) जो