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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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चैतन्यमूर्ति भगवान राग से रहित समभाव अरागी ज्ञान, अरागी श्रद्धा, अरागी स्थिरता द्वारा अन्तर में अवलोकन होता है। समझ में आया? यह 'समचित्ति' योग है। स्वभाव पर्णानन्द का माहात्म्य आकर जो स्थिरता - अन्दर में एकाग्रता (होती है).उस एकाग्रता को यहाँ समभाव कहा गया है। बाहर की अन्दर में एकाग्रता हो. उसे तो विषमभाव-शुभराग कहते हैं। समझ में आया? भगवान आत्मा निज प्रभु आत्मा विराजमान है, उसे देखने में तो समभाव चाहिए; पर को देखने में तो राग होता है, शुभभाव होता है। समझ में आया?
हे मूर्ख! देव किसी मन्दिर में नहीं है न देव किसी पाषाण, लेप या चित्र में है.... समझ में आया? 'जिणु देउ देहा-देवलि' जिनेन्द्रदेव परमात्मा शरीररूपी देवालय में है। देखो, यह जिनेन्द्र अर्थात् आत्मा.... 'जिणु' कहा है न? 'जिणु'। यह जिनदेव तो यह आत्मा है। जिणु देउ' जिनदेव तो 'देहा-देवलि' शरीररूपी देवालय में भगवान यहाँ विराजते हैं । तेरा जिनेन्द्र तो यहाँ विराजता है। वीतरागमूर्ति आत्मा.... आत्मा ही जिनेन्द्र है। जिनेन्द्र, अर्थात् वीतराग का इन्द्र है, अर्थात् आत्मा ही अपना वीतरागी स्वभाव का ही ईश्वर है। अपना त्रिकाल वीतरागस्वरूप है, अकषायस्वरूप है, अनाकुलस्वरूप है, बेहद शान्तस्वरूप है - ऐसा वीतराग का ईश्वर, यह आत्मा स्वयं ही जिनेन्द्र है। समझ में आया? अरे! भाईसाहब! मैं जिनेन्द्र होऊँ? त जिनेन्द्र न हो तो होगा कहाँ से? पर्याय में - अवस्था में जिनेन्द्र आयेगा कहाँ से? भगवान आत्मा स्वयं स्वरूप से जिनेन्द्र न हो तो पर्याय में-अवस्था में जिनेन्द्र होगा कहाँ से? समझ में आया?
मुमुक्षु - हे भाई! हे सखा! हे भव्य... ऐसा आता है न?
उत्तर – यह तो सब सम्बोधन चाहे जो करे। हे भव्य! इसमें सम्बोधन चाहे जैसे करें, उसका कुछ नहीं।
'समचित्ति सो बुज्झहि' उस देव को समभाव से पहचान या उसका साक्षात्कार कर।लो, यह सार यहाँ है। वहाँ परमात्मादेव ईंट और पाषाण के बने हुए मन्दिर में नहीं मिलेगा। वहाँ परमात्मा नहीं मिलेगा। कहो? नहीं परमात्मा का दर्शन किसी पाषाण या धातु या मिट्टी की मूर्ति में होगा या नहीं किसी चित्र में होगा।