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गाथा-४४
हैं) कि श्रुतकेवली ऐसा कहते हैं, श्रुतकेवली ऐसा निश्चय से कहते हैं । समझ में आया? यह ४३ (गाथा पूरी) हुई।
समभाव से अपने देह में जिनदेव को देख मूढा देवलि देउ णवि सिलि लिप्पड़ चित्ति। देहा-देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि समचिति॥४४॥ नहीं देव मन्दिर बसत, देव न मूर्ति चित्र।
तन मन्दिर में देव जिन, समझ होय समचित्त॥४४॥ अन्वयार्थ - (मूढा) हे मूर्ख! (देउ देवलि णवि) देव किसी मन्दिर में नहीं है (सिलि लिप्पइ चित्ति णवि) न देव किसी पाषाण लेप या चित्र में है (जिणु देउ देहा-देवलि) जिनेन्द्रदेव परमात्मा शरीररूपी देवालय में हैं (समचित्ति सो बुज्झहि) उस देव को समभाव से पहचान या उसका साक्षात्कार कर।
४४ । समभाव से अपने देह में जिनदेव को देख। उन दो में निषेध किया न? अब यहाँ देखने में साधन क्या? ऐसा कहते हैं। यह तीर्थ और मन्दिर यह है – ऐसा कहा। देवालय में देव नहीं (है), अज्ञानी मानता है – ऐसा कहा। तब यहाँ देखने में करना क्या? किस भाव से आत्मा दिखता है ? समझ में आया?
मूढा देवलि देउ णवि सिलि लिप्पइ चित्ति।
देहा-देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि समचिति॥४४॥
वजन यहाँ है। उन परदेव, देवालय में तो शुभराग है, शुभविकल्प है, पर का स्मरण है। भगवान आत्मा को अन्दर देखने में समचित्ति' सम्यकश्रद्धा. सम्यग्ज्ञान के द्वारा आत्मा ज्ञात हो – ऐसा है। कहो, समझ में आया? 'समचित्ति' क्यों कहा? बाहर के परोन्मुखता में तो शुभराग होता है। देवालय, देव, मन्दिर, दर्शन, भक्ति में शुभराग है। शुभराग से चैतन्यमूर्ति दिखती नहीं।