________________
३१०
गाथा-४३
मानता। व्यवहार है अवश्य परन्तु उससे आत्मा की प्राप्ति होती है – ऐसा माने तो व्यवहार और निश्चय एक हो गये, मूढ़ हो गया वह तो । समझ में आया? ४३ ।
देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ।
हासउ महु पडिहाइ इह सिद्धे भिक्ख भमेइ॥४३॥ श्री जिनेन्द्रदेव देहरूपी देवालय में है। यह जिनेन्द्रदेव देहरूपी देवालय में है, यह जिनेन्द्रदेव, हाँ! स्वयं का है न? वहाँ (समयसार में) ३१वीं गाथा में केवली की स्तुति में आत्मा रखा है। समझ में आया? केवलज्ञानी की स्तुति कैसे होती है? – ऐसा भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव को प्रश्न किया। कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने कहा कि इस आत्मा के अन्दर अतीन्द्रिय का अनुभव करे, इन्द्रियातीत होकर, तो वह केवली की स्तुति की कहा जाता है। समझ में आया?
श्री जिनेन्द्रदेव देहरूपी देवालय में हैं। यह जिनेन्द्र यहाँ है । 'जणु देवलिहि जिएइ' अज्ञानी जीव मन्दिरों में देखा करते हैं। वहाँ यह भगवान विराजते हैं – ऐसा मानते हैं । वहाँ तो भगवान की स्थापना है। वहाँ तो साक्षात् भावनिक्षेप से भगवान वहाँ भी नहीं है, पर भगवान भी वहाँ नहीं है। हैं ? विवेक बिना वहीं उनके सन्मुख देखने से मेरा कल्याण हो जाएगा और अन्दर का सम्यग्दर्शन हो जाएगा और सम्यग्ज्ञान हो जाएगा - (ऐसा माने तो) मूढ़ है। ऐसा यहाँ कहते हैं।
अज्ञानी 'जणु देवलिहि जिएइ' मन्दिरों में देखते हैं। वहाँ भगवान है, वहाँ भगवान है, वहाँ भगवान है। हे भगवान! दे दो मुझे, दे दो, शिवपद मुझको दे दो रे महाराज! शिवपद! तेरा शिवपद वहाँ है ? तेरा शिवपद तो यहाँ है। जो होवे वह तो बात लेनी न? तुम्हारे मन्दिर होता हो तो क्या? नया होता है इसलिए मानो....
मुमुक्षु - तो फिर दर्शन करते समय वहाँ क्या कहना?
उत्तर – कहना वहाँ क्या? ऐसे बोले भले परन्तु उसका विवेक चाहिए कि वे कुछ दे ऐसा नहीं। मेरा शिवपद तो मेरे पास है, यह तो एक भक्ति का भाव है। आहा...हा...! बाह्य भक्ति तो.... अन्दर की भक्ति तो अन्दर में उतरे वह भक्ति है। ज्ञानानन्दस्वरूप के