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योगसार प्रवचन (भाग-१)
३०९ उसमें) वहाँ कहाँ भगवान थे? समझ में आया? इतना थोड़ा-थोड़ा ठीक है, कोई-कोई बोल। अब, ४३।
देवालय में साक्षात् देव नहीं है देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ। हासउ महु पडिहाइ इह सिद्ध भिक्ख भमेइ॥४३॥
तन मन्दिर में देव जिन, जन मन्दिर देखन्त।
हँसी आय यह देखकर, प्रभु भिक्षार्थ भ्रमन्त॥४३॥ अन्वयार्थ – (जिणु देउ देहादेवलि ) श्री जिनेन्द्रदेव देहरूपी देवालय में है (जणु देवलिहिं णिएइ) अज्ञानी मानव मन्दिरों में देखता-फिरता है (महु हाउस पडिहाइ) मुझे हँसी आती है (इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ) जैसे इस लोक में धनादि की सिद्धि होने पर भी कोई भीख माँगता फिरे।
४३ - देवालय में साक्षात् देव नहीं है। देखो! उसमें (४२ गाथा में) यह तीर्थ और मन्दिर है – ऐसा कहा था। अब, देवालय में साक्षात् देव नहीं है (ऐसा कहते हैं)। वह तो परोक्ष व्यवहार देव है।
मुमुक्षु - दूसरे सम्प्रदायवाले इस गाथा का आधार निषेध के लिए देते हैं।
उत्तर – निषेध के लिए देते हैं। यह तारणस्वामीवाले, यह स्थानकवासी लोग इसका (आधार) देते हैं। देखा यह? यह तो आत्मा का अन्दर (उपयोग) प्रयोग करे, तब यह साधन अन्तर में होता है परन्तु जब अन्दर स्थिर नहीं हो सकता, तब भगवान परमात्मा, मन्दिर, देव, का शुभभाव होता है, होता है; वह नहीं है – ऐसा माने तो भी मूढ़ है और उससे (कुछ धर्म) होता है - ऐसा माने तो भी नहीं है। अरे... समझ में आया? बाह्य तीर्थ, मन्दिर, भक्ति, और पूजा का भाव होता ही नहीं – ऐसा माने तो वह व्यवहार को नहीं