________________
३०८
गाथा-४२
-जहाँ भगवान मोक्ष पधारे, वहाँ आगे ऊपर विराजमान हैं, उनका स्मरण (होता है) कि हो...हो...! परन्तु वे तो पर के द्रव्य के परमात्मा के स्मरण में वे निमित्त हैं। इस भगवान आत्मा की स्मरण के लिए तो अन्दर में जाये तो स्मरण होता है - ऐसा है। आहा...हा... ! हैं?
मुमुक्षु - अपने हित के लिए भी निमित्त के सन्मुख देखना ही नहीं?
उत्तर – निमित्त के सन्मुख देखे, इसे देखे नहीं - ऐसा है। यह योगसार है, योग अर्थात् आत्मा, शुद्ध चिदानन्द में जुड़ना-एकाकार होना । यह ऐसे (बाहर में) एकाकार होने से ऐसे (अन्दर) एकाकार हो – ऐसा नहीं है। ए... निहालभाई ! पहुँच तो वहाँ फिर चिपटे, वहाँ मुक्ति और मोक्ष है.... वह तो एक शुभभाव होता है तब स्मरण में भगवान के स्मरण के लिए ऐसे भगवान थे। उस स्मृति को फिर झुकाना है अन्दर में.... वह स्मृति तो परलक्ष्यी हुई है। समझ में आया? ऐसे सर्वज्ञ परमेश्वर, वैसा मैं हूँ – ऐसा इसे अन्तर में जाए तो इसकी शक्ति की प्रतीति होती है या बाहर में देखने से प्रतीति होती होगी? सम्मेदशिखर देखे और शत्रुजय देखे... दो हजार पुराना मन्दिर है, और पाँच हजार पुरानी प्रतिमा है। इससे भी लाख वर्ष पुरानी हो तो क्या है ? परन्तु यह अनन्त काल का प्राचीन यह आत्मा है, वह? हैं? आहा...हा...!
जब जो जीव अनन्त हुए, उन्होंने इस आत्मा में अन्तर देखा, आत्मा अनन्त आनन्दकन्द है – ऐसा अन्तर में देखा, तब आत्मा की प्राप्ति हुई। कभी बाहर में देखकर आत्मा की प्राप्ति होवे - ऐसा भूतकाल में किसी जीव को हआ नहीं, वर्तमान में होता नहीं, भविष्य में होगा नहीं। जो जीव, आत्मा अखण्डानन्द प्रभु शुद्ध ध्रुव चैतन्य में अन्तर योग करेगा-जुड़ेगा, तब उसका ज्ञान होगा और तब इसका कल्याण होगा। अहा...हा...! कहो, समझ में आया? फिर तो इन्होंने लम्बी बात की है, उसका कुछ नहीं।
कोई साधु की मूर्ति को देखकर प्रश्न.... करे। लो! कोई साधु की मूर्ति को देखकर प्रश्न करे तो वह सच्ची बात है? वह मूढ़ है या नहीं? कहाँ-कहाँ साधु थे? (वह तो) साधु की मूर्ति है। समझ में आया? मूर्ति देखकर पूछे कि महाराज ! इसका क्या? तू मूढ़ है, वहाँ कहाँ साधु थे? वह तो स्थापना है। इसी प्रकार भगवान की स्थापना (की हो