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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३०७ साधारण नहीं चलता। प्रमुख तुम्हारा है या नहीं? यह तुम्हें कहते हैं। कहो, समझे इसमें? आहा...हा...! समझ में आया? यह आत्मा अनन्त ज्ञान, दर्शन, आनन्द सम्पन्न है, तो इस आत्मा की प्राप्ति आत्मा के सन्मुख देखकर होवे – ऐसा है या पर के सन्मुख देखकर होवे – ऐसा है ? यह आत्मा अन्तर में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द - ऐसा आत्मा यहाँ विराजमान है। अब इस आत्मा के सन्मुख देखना हो तो कहाँ देखना? ऐसा (बाहर में) देखना? अन्तर में अन्दर देखने से आत्मा शुद्ध चैतन्यमूर्ति ज्ञायक है, वह तो अन्तर में देखने से वह भाव ज्ञात हो – ऐसा है, इसलिए वास्तव में आत्मा को यह देह, वही देवालय है। देह ही देवालय है और देह ही वह तीर्थ है कि जहाँ आत्मा प्राप्त होता है। दूसरे देह और देवालय में वहाँ कहीं आत्मा प्राप्त होवे – ऐसा नहीं है। आहा...हा...! अद्भुत बात की है। भाई! मुमुक्षु - छह आवश्यकों में पहला तो देव-दर्शन आता है। उत्तर – देवदर्शन है न? परदेव या यह देव? कौन-सा (देव)? यह क्या चलता है? इस ४२ वीं गाथा में क्या लिया? देखो! 'तित्थहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि' तीर्थ में, देव में यह देव नहीं। तीर्थ में और देवालय में यह देव नहीं - ऐसा श्रुतकेवली कहते हैं। मुमुक्षु - इसका पर है न इसलिए। उत्तर – वे तो पर हैं। वहाँ कहाँ आत्मा था? उसके लिए तो यह लगाई है यहाँ। योग-अन्दर आत्मा का योग। ऐसा जुड़ा, वह ऐसे जुड़ाय? मन्दिर और तीर्थ में देखने से आत्मा दिखता होगा? समझ में आया? आहा...हा...! अद्भुत बात! योगीन्द्रदेव मुनि दिगम्बर सन्त हैं, वे स्वयं ४२ वें (दोहे में) कहते हैं । वास्तव में शरीर तीर्थ और मन्दिर है, सब बाहर का उड़ा दिया। यहाँ जा और अन्दर देख - ऐसा कहते हैं। रतनलालजी! लोगों में शोर मच जाये.... हाय...हाय...! सुन न ! यह तो भगवान कैसे थे? उसका ज्ञान-परोक्ष स्मरण करने में वे निमित्त हैं। समझ में आया? अथवा जहाँ
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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