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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) अन्दर में एकाकार होकर अनुभव करना, वह आत्मा की भक्ति है। जिसके सन्मुख देखकर स्थिर होवे उसकी भक्ति वह है | सन्मुख देखकर उसमें स्थिर होवे तो वह परभक्ति है, व्यवहार है । होता है, व्यवहार; व्यवहार नहीं - ऐसा नहीं। पूर्ण वीतराग न हो, इसलिए ऐसा व्यवहार होता है परन्तु कोई ऐसा माने कि इस व्यवहार के द्वारा अन्तर में निश्चय होगा - यह बात मिथ्या है, यह बात यहाँ सिद्ध करते हैं । समझ में आया ? — ३११ कहते हैं कि ‘महु हासउ पडिहाइ' अरे.... मुझे हँसी आती है। बड़ा राजा इस लोक में धनादिक की सिद्धि होने पर भी वह भीख माँगता फिरता है.... बड़ा राजा हो और भीख माँगे, भाईसाहब ! कुछ देना, रोटी देना... इसी प्रकार तीन लोक का नाथ चैतन्य भगवान यहाँ विराजता है और माँगता है पर से। परदेवालय में और मन्दिर में माँगता है कि मुझे मोक्ष देना, वह है उसमें ? 'राजा भिक्षार्थ भ्रमे ऐसी जन को टेव' है या नहीं इसमें ? समझ में आया ? भगवान आत्मा..... ! यहाँ तो योगसार है न ? योग अर्थात् अपने में जुड़ान हो, तब योग कहलाये या पर में जुड़ान हो, वह योगसार कहलाये ? अपने में, ज्ञानानन्दस्वरूप चैतन्य में एकाकार होने से योगसार कहा जाता है। योगसार नहीं, योग है भले व्यवहार, सार नहीं; सार तो यह योगसार है। समझ में आया ? आहा... हा...! दूसरे प्रकार से कहें तो वह योग तो असत्य है, यह योग ही सत्य है; वह योग व्यवहार है, यह योग निश्चय है; व्यवहार योग असत्यार्थ है, निश्चययोग सत्यार्थ है। समझ में आया ? अरे... ! मुमुक्षु - दूसरा रंग....... उत्तर - दूसरा रंग होवे, शुभभाव का होवे । दूसरा क्या है ? जब होवे तब शुभ होवे, तब भगवान ऐसा है। ऐसा भी कहे हे प्रभु! तुम्हारी भक्ति से... देखो न ! श्रीमद् का एक वाक्य नहीं ? ' भजि ने भगवन्त भव अन्त लहो, भजि ने भगवन्त भव अन्त लहो' ए..... निहाल भाई ! ' भजि ने भगवन्त.... ' दूसरे ऐसा बोले कि उन भगवान को भजकर भव का अन्त हो गया। शब्द ऐसे हैं। आता है न ?' शुभ शीतलतामय छाय.... ' भाषा तो ठीक, भव अन्त की बात लेते हैं। वापस वह (आता है) 'भजि ने भगवन्त....' इस भगवान को भजकर, यह भगवान ऐसा कहते हैं, उनका भजन तब व्यवहार से कहलाता है कि वे ऐसा
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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