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गाथा-४२
परमेश्वर हैं ? इस रागरहित तेरे आत्मा का ध्यान तू करे तब यह भगवान है - ऐसा तुझे ख्याल में आयेगा नहीं तो शरीर, वाणी दिखेंगे, समवसरण दिखेगा, लोग दिखेंगे, इन्द्र दिखेंगे आहा... हा...! मानो ऊपर से आये गंगाधर और विद्याधर.... समझ में आया ? साक्षात् परमात्मा विराजते हों तो वहाँ तुझे क्या दिखेगा ? परमात्मा, उनका आत्मा दिखेगा ? उनका आत्मा कब दिखेगा ? कि तू स्वयं जब उसे राग की आँख छोड़कर, पर को देखना छोड़कर और स्व को देखने जाये, तब तेरा आत्मा ज्ञात होगा (और तब ) परमात्मा ऐसे होते हैं (ऐसा ज्ञात होगा) । समझ में आया ?
शरीररूपी देवालय में जिनदेव है। बाहर में तो व्यवहार है। शुभभाव, पूजा, भक्ति का शुभभाव व्यवहार है परन्तु परमार्थ से वहाँ देव है (ऐसा नहीं)। तेरा वह नहीं और परमार्थ से भगवान विराजते हैं, जो आत्मा, वह आत्मा यहाँ नहीं, वह तो स्थापना निक्षेप है और स्थापना निक्षेप में भी, स्थापना में भी भगवान के गुण गाते हैं न? या मूर्ति के गुण गाते हैं ? भगवान ऐसे, तुम भगवान ऐसे, तुम भगवान ऐसे, तुम भगवान ऐसे.... परन्तु इस आत्मा की दृष्टि होवे तो उसे ऐसे शुभभाव के भाव को व्यवहार कहा जाता है परन्तु जिसे आत्मदृष्टि नहीं और अकेला वहीं देखता है, उसे कहते हैं कि आत्मा देव यहाँ है, वहाँ बाहर में कहीं नहीं है । अपने देव को छोड़कर दूसरे देव को पूजने जाये, वह पूजन सच्ची नहीं होती। समझ में आया ? इसकी विशेष व्याख्या करेंगे।
(श्रोता: प्रमाण वचन गुरुदेव !)