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वीर संवत २४९२, आषाढ़ शुक्ल ५, गाथा ४२ से ४५
गुरुवार, दिनाङ्क २३-०६-१९६६ प्रवचन नं. १६
वास्तव में शरीर ही तीर्थ और मन्दिर है। समझ में आया ? यह शरीर ही आत्मा का तीर्थ और मन्दिर है, क्योंकि यहाँ आत्मा बसता है । बाह्य मन्दिर में कहीं यह आत्मा नहीं बसता । आत्मा को देखना और जानना हो – अनुभव करना हो तो कहीं (वह) मन्दिर में नहीं, प्रतिमा में नहीं, तथा साक्षात् भगवान है, उनमें भी यह आत्मा नहीं है। समझ आया ? इस आत्मा को देखना हो, जानना हो तो इस शरीररूपी तीर्थ और मन्दिर में वह दिखेगा। यह आत्मा कहीं भगवान के पास नहीं है । समवसरण में नहीं है कि वहाँ उसके समक्ष देखने से यह आत्मा दिखे।
प्रश्न – नमूना तो सच्चा है ।
उत्तर - नमूना यहाँ होता है या वहाँ होगा ?
• मन्दिर में नहीं ?
मुमुक्षु
उत्तर – नहीं, नहीं; उसमें बिल्कुल नहीं। यह आत्मा वहाँ है या यहाँ है ? नमूना यहाँ है या वहाँ है ? कहो, यह तो यहाँ ४२ ( गाथा में) सिद्ध करना है। समझ में आया ?
'तित्थहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वुत्तु ।' श्रुतकेवली भगवान, श्रुतकेवली भगवान ऐसा कहते हैं । यह निश्चय की बात है न ?' देहादिवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुतु।' देहरूपी देवालय में यह जिनेश्वर विराजमान है। देखो ! यह वास्तविक तत्त्व । यह तो भगवान है, यह कहीं भावनिक्षेप से वहाँ नहीं । प्रतिमा और मन्दिर है, वह वहाँ भावनिक्षेप से भगवान है ? वह तो स्थापना है ।
यहाँ शरीर और यह तीर्थ है। यह शरीर, वह मन्दिर है कि जिसमें भावना स्वयं