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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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अन्वयार्थ – (सुइकेवलि इम वुत्तु) श्रुतकेवली ने ऐसा कहा है कि (तित्थहिं देविल देउ णवि) तीर्थक्षेत्रों में व देवमन्दिर में परमात्मदेव नहीं है (णिरूत्तु एहउ जाणि) निश्चय से ऐसा जान कि (देहादिवलि जिणु देउ) शरीररूपी देवालय में जिनदेव हैं।
निज शरीर ही निश्चय से तीर्थ व मन्दिर है। अब यह अन्दर का आया।
तित्थहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वुत्तु।
देहादेवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरूत्तु॥४२॥
श्रुतकेवली भगवान, जिस ज्ञान में पूर्ण सर्वज्ञ आदि अथवा श्रुतकेवलियों ने तीर्थक्षेत्रों में और देवमन्दिर में परमात्मादेव नहीं.... ऐसा कहा है परन्तु णिरुतु हाँ! णिरुतु अर्थात् निश्चय से। समझ में आया? श्रुतकेवली और भगवान, सन्तों ने बाहर देवालय में देव नहीं है, परमात्मा वहाँ नहीं है ( – ऐसा कहा है)। निश्चय से परमात्मा नहीं। निश्चय से परमात्मा देह-देवल में तेरा आत्मा विराजमान है। समझ में आया?
निश्चय से ऐसा जान.... देखा? निश्चय से है न पाठ ? णिरुतु ऐसा जान, ऐसा। 'देहादेवलि जिणु देउ' शरीररूपी देवालय में जिनदेव है। भगवान आत्मा वीतरागस्वरूप विराजमान आत्मा है, उसे तू पहचान और उसकी पूजा कर, यह देव की पूजा है। समझ में आया? उन कुतीर्थों को लेकर अब यहाँ थोड़ा बाहर का डाला है। वहीं का वहीं भटका करे, सम्मेदशिखर और वह यहाँ है न, शत्रुजय, वहाँ मानो भगवान है। वहाँ तो भगवान की स्थापना है। वास्तविक भगवान भी वहाँ नहीं, वे पर भगवान परन्तु वास्तविक वहाँ नहीं, ऐसा कहते हैं। क्या कहा? जो भगवान की स्थापना की है, वे वास्तविक भगवान भी वहाँ नहीं। वास्तविक भगवान तो समवसरण में विराजमान तीर्थंकररूप से वे वास्तविक भगवान हैं और वहाँ तो उन्हें देखेगा तो शरीर और वाणी तुझे अकेले दिखेंगे, भगवान नहीं दिखेंगे: उनका आत्मा नहीं दिखेगा। वह आत्मा कब दिखता है? कि त तेरा देखेगा तो उनका आत्मा तुझे ज्ञात होगा। उनके आत्मा का ज्ञान कब होता है कि यह भगवान सर्वज्ञ