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________________ ३०० गाथा-४१ इस्लाम माने । खेल-तमाशा में विषय का पोषण करके धर्म मान लेता है। यह मूढ़ता है, कहते हैं। समझ में आया? इत्यादि बात करते हैं। लो! __ आत्मानुभव को ही निश्चय धर्म मानना, सम्यग्दर्शन है। भगवान आत्मा को शुद्ध चैतन्यमूर्ति अनुभव करना, वह आत्मदेव और उसका नाम सम्यग्दर्शन है, वह देव की पूजा है। कुतीर्थ में जहाँ-तहाँ भटकने से कुछ मिले ऐसा नहीं है। गंगा में स्नान करेंगे तो मैल जाएगा.... शरीर का मैल जाएगा, आत्मा का मैल नहीं जाएगा। तुम्बी, तुम्बी का दृष्टान्त नहीं आता? कड़वी तुम्बी साथ में ले जाना, उसने कहा। आता है न? तीर्थयात्रा को निकले थे, तो साथ में कड़वी तुम्बी दी, इसे भी साथ में स्नान कराना, कराते-कराते सबमें नहाये और तुम्बी को स्नान कराकर आये, तीर्थ की हुई तुम्बी लाओ, काटो, टुकड़े करो.... (टुकड़े होने के बाद कहा) कड़वी है.... इतना-इतना स्नान किया (तो भी) तुम्बी की कड़वाहट तो मिटी नहीं और तुम इतने-इतने तीर्थ करने गये और आत्मा के भान बिना तुम्हारी कड़वाहट तो मिटी हुई दिखती नहीं। तीर्थ कर-करके यह सब भ्रम दिखता है। ऐसा दृष्टान्त आता है। तुम्बी को सब तीर्थ कराये परन्तु तुम्बी तो कड़वी रही। ऊपर से मैल निकला, अन्दर तो कड़वाहट रही। इसी प्रकार बाहर से स्नान करे, जहाँ-तहाँ गिरे परन्तु भगवान आनन्द शुद्ध आनन्दकन्द है – ऐसा न मानकर उसे दया, दान के विकल्प से लाभ होता है और इस पर से मुझे लाभ होता है, मुझे लाभ मिलता है, और इससे कुछ प्रतिकूलता टलती है, सन्तानहीनता मिटती है, पुत्रादि होते हैं और पैसा मिलता है, यह सब भ्रम तो पड़े हैं। भ्रम का जहर तो तेरा उतरा नहीं, तूने किसका तीर्थ किया? समझ में आया? यह तो फिर व्यवहार की क्रिया है, वह निमित्तरूप है – ऐसा कहेंगे। निज शरीर ही निश्चय से तीर्थ व मन्दिर है तित्थहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वुत्तु। देहादेवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरूत्तु॥४२॥ तीर्थ-मन्दिरे देव नहिं, यह श्रुति केवलि वान। तन मन्दिर में देव जिन, निश्चय करके जान॥४२॥
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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