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गाथा-४०
हुआ, उसे तो निर्मल ज्ञान और आनन्द के मनके पर्याय में फिरते हैं । किसे फेरना? कौन सी माला इसे गिननी? किसकी माला गिननी? आहा...हा...! किसके साथ मैत्री करना? समझ में आया? किसके साथ क्लेश करना?
कलहु अर्थात् शत्रुता। किसके साथ क्लेश करे? भगवान आत्मा शान्त-आनन्द ज्ञानमूर्ति को आत्मा कहते हैं – ऐसा शान्तस्वभाव जहाँ ज्ञात हुआ, (वहाँ) किसके साथ क्लेश (करे)? स्वयं के साथ क्लेश नहीं, स्वयं में क्लेश नहीं, पर के साथ कहाँ क्लेश करे? पर-आत्मा में क्लेश देखता नहीं। पर के आत्मा में क्लेश है नहीं, वे तो क्लेशरहित आत्मा है। आहा...हा...! समझ में आया? किसके साथ क्लेश करे?
"जहिं कहिं जोवउ तहिं अप्पाणउ' वजन यहाँ है, हाँ! जहाँ कहीं देखो, वहाँ आत्मा ही आत्मा दृष्टिगोचर होता है। इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि समस्त आत्माएँ एक ही हैं – ऐसा यहाँ नहीं कहना है। जहाँ देखो उसकी दृष्टि में से राग-द्वेष और शरीर से उठ गयी है, राग-द्वेष के भाव से, शरीर से उठकर (मैं) आत्मा ज्ञान हूँ – ऐसी हो गयी है; इसलिए ऐसा ही आत्मा जैसे अपने को देखता है – ऐसे दूसरे आत्मा को भी ऐसा देखता है। आत्मा दूसरे का है – ऐसा देखता है। रागादि, शरीरादि तो अजीव में जाते हैं। समझ में आया?
पहले जीव-अजीव का भेद कहा, फिर केवलज्ञानस्वभावी जीव कहा – ऐसा जाना उसे दूसरे के साथ कलह करना कहाँ रहा? दूसरे का पूजन करना कहाँ रहा? स्वयं ही पूजने योग्य – ऐसा आत्मा अपने ज्ञान में ज्ञात हुआ, उसे दूसरे के साथ क्लेश, शत्रुता या पूजन – यह कुछ नहीं रहता। आहा...हा...! समझ में आया?
'जहिं कहिं जोवउ तहिं अप्पाणउ' जहाँ-जहाँ देखो वहाँ भगवान आत्मा (दिखता है)। आहा...हा...! धर्मी जीव अपने आत्मा को विकार और शरीर के संयोगरहित देखता है तो जैसी दृष्टि से स्वयं को देखता है, वैसी ही दृष्टि से दूसरे आत्माओं को देखता है। समझ में आया? दूसरे का आत्मा, यह रागवाला आत्मा देखे? राग तो विकार है। शरीरवाला आत्मा देखेगा? शरीर तो अजीव है। समझ में आया? दूसरे के आत्मा को भी, आत्मदृष्टि से स्वयं को जैसा देखा-राग और विकाररहित, शरीररहित वह आत्मा – ऐसा