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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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जहाँ भान हुआ, ऐसी दृष्टि दूसरे आत्मा को भी आत्मा, आत्मा देखता है। जहाँ देखता है वहाँ आत्मा की पर्याय अपने (जैसी) देखता है। दूसरे प्रकार से ऐसा है। सूक्ष्म बात रखी है।
__'जहिं कहिं जोवउ तहिं अप्पाणउ' इसका अर्थ क्या? आत्मा दूसरा है – ऐसा देखता है। यह परमाणु आदि को देखे तो भी उसमें ज्ञान देखता है कि मैं इन्हें जाननेवाला हूँ, यह तो जड़ हैं। समझ में आया? रागादि को जानता है तो जाननेवाला तो ज्ञान है, उस ज्ञान को जानता है। शरीर को जानते हुए ज्ञान है, उस ज्ञान को ज्ञान जानता है अर्थात् आत्मा ही जहाँ हो, वहाँ ज्ञात होता है – ऐसा कहते हैं। समझ में आया?
अपनी मौजूदगी में तो ज्ञानस्वरूप आत्मा है – ऐसा जाना तो दूसरे की मौजूदगी को देखने पर भी उसका ज्ञान ही स्वयं का उसमें होता है. उस ज्ञान को ही स्वयं देखता है। इसलिए जहाँ देखो वहाँ आत्मा, आत्मा और आत्मा.... यह स्वयं का आत्मा का ज्ञान ही देखता है। अद्भुत बात, भाई ! ऐसा यह धर्म किस प्रकार का? इसने कभी सुना नहीं है।
अनन्त काल में भटक-भटक कर मर गया। चौरासी के अवतार में भुक्का (निकल) गया। अनादि का आत्मा कहाँ नया है ? आत्मा कहीं नया होता है ? अनादि का है परन्त अनादि का वह स्वयं कौन तत्त्व है. उसका ज्ञान. ज्ञान. ज्ञान. चैतन्यज्ञान है - ऐसा कभी जाना नहीं। यह तो राग वह मैं, शरीर की क्रिया वह मैं, मैं पर का कुछ कर दूँ, पर से मुझमें कुछ होवे वह मैं, यह सब आत्मा को अनात्मा के रूप में माना है। समझ में आया?
___कोई अमुकभाई नहीं, सब आत्मा है – ऐसा जानें । उस समय जाननेवाले का ज्ञान जाननेवाले के ज्ञानरूप ज्ञातारूप से परिणमता है, उसे जाने ऐसे निश्चय की बात यहाँ की है। वह जैसा है – ऐसा जाने। समझ में आया? उसकी पर्याय भी जैसी है, ऐसी जानें परन्तु उस पर्याय का ज्ञान होने पर ज्ञान स्वयं का होता है न? सामनेवाले के दोष का ज्ञान हुआ परन्तु वह ज्ञान हुआ न? उसमें ज्ञान हुआ (वह) तो स्वयं में हुआ है और स्वयं का ज्ञान हुआ है, दोष का ज्ञान नहीं। समझ में आया? दूसरे के आत्मा, जड़ को देखनेवाले की मुख्यता में ज्ञान न हो तो यह है, ऐसा निर्णय किसने किया? यह तो स्वयं जानता है, यह