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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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जहाँ अन्तर में जाना, देखा, अनुभव किया – ऐसे आत्मा को अब स्पर्श-अस्पर्श कुछ नहीं रहता । समझ में आया ?
'को वंचर' कौन वंचना या मायाचार करे ? भगवान आत्मा जानने-देखनेवाला चिदबिम्ब है, ऐसा आत्मा का भान हुआ तो दूसरे आत्माएँ भी ऐसे हैं । दूसरे देह में विराजमान आत्मा भी देह, वाणी से भिन्न, इस मिट्टी से भिन्न हैं और इन राग-द्वेष से भी पृथक् अन्दर चैतन्य आनन्द है । किसे ठगूँ और किसे नहीं ठगूँ? ऐसा कुछ उसमें नहीं रहता। आहा... हा...! कौन वंचना या मायाचार करे ? किसके साथ मायाचार करे ? सब भगवान आत्मा चैतन्य ज्योत प्रभु आत्मा है, आनन्द की मूर्ति वह आत्मा है। विकार और शरीर, वह आत्मा नहीं है - ऐसा जिसने आत्मा को जाना, वह किसे ठगे ? किसके साथ माया करे ? सब भगवान दिखे, उसमें माया किसके साथ करे ? - ऐसा कहते हैं । आहा... हा...!
भगवान ज्ञानस्वरूपी प्रभु... ! यह योगसार है । चैतन्यभगवान ज्ञान और आनन्द का सागर प्रभु है – ऐसा जहाँ योग अर्थात् अपने भाव का जुड़ान जहाँ स्वभाव के साथ हुआ, अब वह दूसरे के साथ मायाचार, वंचना करने का कहाँ रहा ? समझ में आया ? इस आत्मा को जानता नहीं था, तब तक वह मायाचार करता था । किसी दोष को छुपाना, इसे ऐसा बताऊँ, इसे यह बताऊँ, यह आत्मा को जानता नहीं था कि आत्मा ऐसा है ही नहीं । राग, द्वेष और माया, कपट यह माया आत्मा का स्वरूप ही नहीं है। इस आत्मा को जानने पर कौन मायाचार करे ?
कौन किसके साथ मैत्री और कलह करे ? शत्रु... शत्रु ... ओ...हो...हो... ! यह आत्मा, देह के रजकणों से भिन्न और पुण्य-पाप के राग से भिन्न है - ऐसा जहाँ ज्ञानस्वरूपी आत्मा का भान हुआ, वह किसके साथ मैत्री करे ? सब परमात्मा हैं, मैत्री किसके साथ करना ? कहो, प्रवीणभाई ! किसका भजन करना ? - ऐसा कहते हैं । यह भजन करनेवाला आत्मा जगा, चैतन्यमूर्ति मैं हूँ, आनन्द का कन्द, वह अतीन्द्रिय आनन्द के मनके अन्दर फिराता है । आहा... हा...! समझ में आया ? देह से, यह रजकण, मिट्टी, धूल, राग, मलिनता है। निर्मलानन्द प्रभु आत्मा, वह मैं हूँ - ऐसा जहाँ अन्दर में भासि