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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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ज्ञानी को हर जगह आत्मा ही दिखता है को सुसमाहि करउ को अंचउ, छोपु-अछोपु करिवि को वंचउ। हल सहि कलह केण समाणउ, जहिं कहिं जोवउ तहिं अप्पाणउ॥४०॥
को समता किसकी करे, सेवे पूजे कौन। किसकी स्पर्शास्पर्शता, ठगे कोई को कौन? को मैत्री किसकी करे, किसके साथ ही क्लेश। जहँ देखू सब जीव तहँ, शुद्ध बुद्ध ज्ञानेश॥ ४०॥
अन्वयार्थ – (को सुसमाहि करउ) कौन तो समाधि करे (को अंचउ) कौन अर्चना या पूजन करे (छोपु-अछोपुकरिवि ) कौन स्पर्श-अस्पर्श करके (को वंचउ) कौन वंचना या मायाचार करे ( केण सहि हल कलहु समाणउ) कौन किसके साथ मैत्री व कलह करे ( जहिं कहिं जोवउ तहिं अप्पाणउ) जहाँ कहीं देखो वहाँ आत्मा ही आत्मा दृष्टिगोचर होता है।
४० गाथा... ज्ञानी को हर जगह आत्मा ही दिखता है। इस देह में विराजमान चैतन्यस्वरूप ज्ञानानन्द है, यह देहादि वाणी आदि तो जड़ है, यह तो मिट्टी है। रागादिभाव होते हैं, वह तो विकार, दोष है, वह आत्मा नहीं है; अत: आत्मा के जाननेवाले को सर्वत्र आत्मा ही भासित होता है, यह बात यहाँ अधिक कहते हैं।
को सुसमाहि करउ को अंचउ, छोपु-अछोपु करिवि को वंचउ। हल सहि कलहु केण समाणउ, जहिं कहिं जोवउ तहिं अप्पाणउ॥४०॥
देखो, यहाँ जोर है। जहाँ देखते हैं, वहाँ आत्मा दिखता है। कौन समाधि करे, कौन अर्चा-पूजा करे.... भगवान आत्मा ज्ञान चैतन्यसूर्य प्रभु आत्मा है। ऐसा जहाँ अन्तर में भासित हुआ, अब उसे समाधि करूँ - यह कहाँ रहा? स्वरूप ही ज्ञान है । मैं आनन्द और ज्ञानस्वरूपी आत्मा हूँ – ऐसा जहाँ भासित हुआ, वहाँ उसे दूसरे सभी आत्मा