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गाथा - ३९
माना । अब बाहर में भले स्वाध्याय मन्दिर में बैठा हो या हाथ ऐसे करके बैठा हो परन्तु बैठा अन्दर में - बाह्य में समझ में आया ? हरिभाई !
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ज्ञानस्वभावी भगवान.... यहाँ तो यह कहा न ? ज्ञानस्वभावी आत्मा । देखो ! एक मूलस्वभाव इन्होंने लिया... मूल पाठ में है न ? भाइ जोइ जोइहिं भणिऊँ हे योगी ! योगियों ने ऐसा कहा है, सन्तों ने ऐसा कहा है.... तो इसका अर्थ कि तू ज्ञानस्वभाव है. ऐसी जो दृष्टि पलटे और रागादि नहीं - ऐसी जो दृष्टि होवे, उसका परिवर्तन तो उसकी दशा में होता है, अरूपी में होता है। यह जाननेवाला जाने, ज्ञान से जाने कि यह परिवर्तन हुआ (या) नहीं हुआ... यह बाहर की क्रिया से कैसे ज्ञात हो इसमें ? समझ में आया ?
अन्दर में परिवर्तन हुआ। ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा, राग का कण भी नहीं ऐसी दृष्टि हुई, यह परिवर्तन तो पर्याय में हुआ। इस अरूपी ज्ञान ने जाना। अब इस बाहर की क्रिया में तो लड़ाई में खड़ा दिखे.... लड़ाई में खड़ा दिखे, फिर भी अन्तर में पूरा पलटा खाया है कि जिसमें अकेला ज्ञानस्वभावी आत्मा का स्वामी होता है और राग तथा उसका स्वामी नहीं होता। यह अन्दर की दशा में ज्ञात होता है या बाहर से ज्ञात होता है ?
एक (जीव) बाह्य से अत्यन्त त्याग करके बैठा है। लो ! स्त्री नहीं, पुत्र नहीं, नग्न होकर बैठा है परन्तु वह तो बाह्य चीजें संयोग में कम दिखाई दी परन्तु अन्दर में संयोगभाव को अपने स्वभाव के साथ मानता है, रागादि विकारभाव संयोगी है, उसे स्वभावभाव चैतन्य का त्रिकालभाव है, उसके साथ मानता है तो उसे कोई भी संयोग छूटा नहीं है, जरा भी नहीं छूटे हैं, अत्यन्त संयोग के विकार में ही पड़ा है। यह माप बाहर से होता है या अन्दर से होता है ? बाहर में वह कहाँ आता है तो बाहर से हो ? कहो, इसमें समझ में आया ? अपना निर्णय करे और फिर दूसरे का काम ..... . दूसरे का क्या काम है इसे ? ऐसा ज्ञानस्वभाव आत्मा का है।
इसमें ऐसा एक दर्शनस्वभाव इसके साथ इन्होंने लिया है। ऐसे सुखस्वभाव है, वीर्यस्वभाव है, चैतन्य का अमूर्तस्वभाव है । इतने मूलस्वभाव इन्होंने अधिक लिये हैं । शास्त्र के दूसरे आधार लेकर भी लिये हैं ।