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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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मुमुक्षु – बाहर परिवर्तन नहीं दिखता न।
उत्तर – बाहर में परिवर्तन क्या दिखे? बाहर में कहाँ वह चीज थी? बाहर में वह चीज कहाँ थी कि उसका परिवर्तन बाहर में दिखे? क्या कहा? समझ में आया? क्या कहा? यह ज्ञानस्वरूपी भगवान बाहर में कहाँ है ? शरीर में, वाणी में, उनमें तो नहीं; तो उनमें नहीं, तब उनका परिवर्तन बाहर में कहाँ दिखेगा? कुछ समझ में आया? उसका परिवर्तन तो, उसमें जहाँ स्वयं है, वहाँ दिखेगा।
ज्ञानस्वरूपी आत्मा माना नहीं था, जाना नहीं था, तब (इस) राग को एकत्वरूप जानकर, मानकर, लीन होता था। अब वह परिवर्तन कहाँ होगा? शरीर में होगा? पर में होगा? क्योंकि फेरफार-विकार की अवस्था भी इसमें हुई थी। है? इसमें हुई थी, यह बदला तो परिवर्तन तो इसमें होगा? शरीर, वाणी, मन में होगा? बाहर में परिवर्तन होगा? कहो? मन्दिर में यह कहाँ बैठा है ? यह बैठा है ज्ञान में । अब यह ज्ञान में बैठा है या ज्ञान में एकत्व – राग करके बैठा है – इसका निर्णय तो अन्दर में है या बाहर में है ? वहाँ बैठे 'स्वाध्याय मन्दिर' के बाह्य क्षेत्र में वह आया नहीं, वह तो आता नहीं, वह आत्मा तो अपने ज्ञान क्षेत्र में है। अब वह ज्ञानक्षेत्र में है, वह बाह्य क्षेत्र में बैठा दिखे, (वह) अन्दर में क्या करता है? यह तो अन्दर की बात रही। हैं ? कि मैं यहाँ आया, इसलिए मुझे निवृत्ति मिली, मैं यहाँ आया, इसलिए मेरे राग घटा – यह तो मान्यता सब अन्तर में एकाग्र करते हैं। यह मान्यता मिथ्यादृष्टि की है, यह तो बाह्य लक्ष्य से निर्णय करता है।
अन्तर में आत्मा ज्ञानस्वभाव है, चैतन्यबिम्ब है – ऐसा जो निर्णय होना, उसकी जो क्रियाओं का परिवर्तन होना, वह तो उसकी दशा में होता है तो उस दशा का जाननेवाला (होवे), उसे दशा का पता पड़े। कहो, समझ में आया? दूसरे परमाणु, शरीरादि तो पर -पदार्थ हैं, उसकी अवस्था का बदलना, घटना, कम होना, उसके माप से आत्मा में निवृत्ति का माप आया – वह कहाँ से आया? पृथक ही पड़े हैं, कब अन्दर एकत्रित हो गये थे? प्रत्येक रजकण पृथक् हैं। इसकी सत्ता अस्तिरूप तो ज्ञानस्वरूप अस्तिरूप है, अब ऐसा अस्तित्व है, उसे न मानकर मैं इस शरीर का कुछ करता हूँ-राग करता हूँ-यह करता हूँ, यह करता हूँ, यह करता हूँ, यह करता हूँ तो जो करता हूँ – ऐसी सत्तावाला