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गाथा - ३९
केवलज्ञानस्वभाव कहते हैं । उस गुण से ही दूसरे गुणों का प्रतिभास होता है - ऐसा कहते हैं । आत्मा में ज्ञान है, उस ज्ञान से दूसरे गुणों का भान होता है। दूसरे गुणों से ज्ञान का भान - ऐसा नहीं होता, ऐसा कहते हैं । उसे यहाँ केवलज्ञानसवभावी विशेष क्यों कहा ? कि ज्ञानस्वभाव को जानने से, वह ज्ञान दूसरे आनन्द का, श्रद्धा का, अस्तित्व का, वस्तुत्व का (- ऐसे) अनन्त गुणों का प्रतिभास ज्ञान करता है। समझ में आया ? दूसरे गुण अस्ति रखते हैं परन्तु वे गुण नहीं जानते अपने को; नहीं जानते ज्ञान को। यह ज्ञानगुण ऐसा है कि
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ज्ञान स्वयं को जानते हुए, दूसरे गुण ऐसे हैं - ऐसा स्वयं जानता है। समझ में आया ? आनन्द का अनुभव होता है परन्तु उस आनन्द के अनुभव को ज्ञान जानता है कि यह आनन्द है। समझ में आया ?
इसी तरह ज्ञानस्वरूपी आत्मा की श्रद्धा - सम्यग्दर्शन (होवे), उसे ज्ञान जानता है कि यह सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन जानता नहीं । ज्ञान जानता है कि मैं त्रिकाल अस्तित्व हूँ । ज्ञान में यह प्रतिभास होता है। ज्ञान में ऐसा स्वभाव है, प्रतिभास होता है कि यह त्रिकाल अस्ति है । त्रिकाल अस्ति है, वह स्वयं ज्ञान नहीं करता, क्योंकि उसमें ज्ञान स्वभाव नहीं है। समझ में आया ? ज्ञान है, वह त्रिकाल अस्तित्व है, यह त्रिकाल है - ऐसे अस्तित्व की सत्ता का बोध ज्ञान के द्वारा होता है। समझ में आया ?
अन्य गुणों का प्रतिभास होता है, उसे ही सर्वज्ञपना कहते हैं। लो ! प्रत्येक आत्मा स्वभाव से सर्वज्ञ है। प्रत्येक आत्मा स्वभाव से तो सर्वज्ञस्वरूपी है। सर्वज्ञ अर्थात् ज्ञानस्वभाव कहा तो यहाँ ज्ञान में सभी गुणों का ज्ञान आ गया और वह सर्वज्ञस्वभावी हो गया। उन समस्त गुणों का जाननहार और अपना जाननहार - ऐसा आत्मा का स्वभाव, वह सर्वज्ञस्वभाव है । अद्भुत बात, भाई ! परन्तु इसमें क्रिया क्या करना ? वे कहते हैं तुम्हें बातें करनी हैं- ऐसी बातें कितने ही करते हैं। कौन कहता था ? कल कोई (कहता था) । राणपुरवाले उन 'लल्लूगोविन्दजी' वाले न ? आहा....हा... ! भाई ! क्रिया की व्याख्या क्या? यह आत्मा ज्ञानस्वरूप है, इसे जानना, वह क्रिया नहीं है ? इसे जानना, वह क्रिया है। यह ज्ञानस्वरूपी आत्मा अनन्त गुण को जाननेवाला ऐसा ज्ञान, उसकी निर्विकल्प प्रतीति करना यह प्रतीति करना क्रिया नहीं है ?