SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) २८५ केवलज्ञानस्वभाव धारक आत्मा को तू जान । देखो ! यहाँ दूसरे शास्त्र को जान, यह कुछ बात नहीं की है। समझ में आया ? T - यदि तू मोक्ष का लाभ चाहता हो ...... . मोक्ष अर्थात् पूर्ण पवित्रता । पूर्ण पवित्रता की पर्याय को प्रगट करना चाहता हो, ऐसा । केवलज्ञान और केवलदर्शन, परमानन्द – ऐसी दशा को प्रगट करने की भावना हो तो भगवान ज्ञानस्वभाव, अकेला ज्ञानस्वरूपी है - उसका अनुभव कर । अकेले ज्ञानस्वभाव का अनुभव करने से तुझे मुक्ति मिलेगी। कहो, समझ में आया इसमें ? लो ! इसमें केवलज्ञानस्वभावी मुणि जानना • यह तुझे मोक्ष के लाभ के लिए कारण है। जानना आया, इसमें चारित्र तो नहीं आया ? अन्य (लोग) कहते हैं कि ज्ञान-ज्ञान आया, परन्तु इसमें चारित्र नहीं आया.... ? परन्तु जो आत्मा अकेला ज्ञानस्वरूप सूर्य है – ऐसा जानने से प्रतीति और स्थिरता व आनन्द का अंश - सब साथ आये हैं । यहाँ बहुत संक्षिप्त कहा है । (गाथा) ३८ में जीव- अजीव की व्याख्या की, फिर (३९ में) जीव है, वह ऐसा है - ऐसा कहते हैं । समझ में आया ? अकेली चैतन्यमूर्ति, केवल की मूर्ति है, उसमें पुण्य और पाप, रागादि, शरीर, कर्म-फर्म कुछ नहीं। कुछ नहीं, यह पर तो नहीं और है तो अकेला ज्ञानस्वभाव परिपूर्णता से भरा आत्मा है। ऐसे ज्ञानस्वभाव को मुणि जान, जान। इस जानने में मुक्ति आ गयी। मोक्ष का मार्ग - सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र । यह केवलज्ञान की मूर्ति आत्मा है - ऐसी श्रद्धा, वह समकित; अकेला ज्ञानमय आत्मा, उसका ज्ञान, वह ज्ञान और अकेला ज्ञानमय आत्मा, उसकी रमणता, वह चारित्र है । कहो, समझ में आया इसमें ? प्रत्येक आत्मा को जब निश्चयनय से देखा जाए.... पुद्गल को स्वभाव से देखा जाए, तब देखनेवाले के सामने अकेला एक आत्मा सर्व पर के संयोगरहित खड़ा हो जाएगा। ऐसा कहते हैं । पर से भिन्न देखेगा तो अकेला आत्मा दिखेगा । उसमें दूसरा- दूसरा शामिल नहीं होगा - ऐसी जरा लम्बी बात करते हैं । आठ कर्म से रहित, शरीर से रहित, राग-द्वेष और भावकर्म से रहित देखता है - ऐसे आत्मा का अनुभव करो। आत्मा के अनुभव से यह सब चीजें अलग है। समझ में आया ? उसके गुणों का वर्णन किया है। आत्मा में एक प्रधानगुण ज्ञान है । उसे ही
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy