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गाथा - ३९
केवल - णाण-सहाउ सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ ।
जइ चाहहि सिव-लाहु भाइ जोइ जोहहिं भणिउँ ॥ ३९ ॥ हे योगी! योगियों ने कहा है..... सर्वज्ञ परमेश्वर अथवा सन्तों ने कहा है कि तुहुँ केवलणाण सहाउ सो अप्पा जीव मुणि तू केवलज्ञान - स्वभावी आत्मा को जान । केवलज्ञान, अर्थात् यहाँ केवलज्ञान पर्याय की बात नहीं है । केवलज्ञान-अकेला ज्ञानस्वभाव, अकेला ज्ञानस्वभाव; उसमें सर्वज्ञस्वभाव आ गया, परन्तु अकेला स्वभाव ज्ञानस्वभाव आत्मा। समझ में आया ? केवलज्ञान अर्थात् उस पर्याय का केवलज्ञान, (उसका ) यहाँ काम नहीं है।
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यह तो पूरा ज्ञानस्वरूप चैतन्य, 'दर्श मोह क्षय से उपजा है बोध जो ' आता है न?' दर्श मोह क्षय से उपजा है बोध जो, तन से भिन्न मात्र चेतन का ज्ञान जब ; तन से भिन्न मात्र चेतन का ज्ञान जब, चरित्र - मोह का क्षय जिससे हो जायेगा, वर्ते ऐसा निज स्वरूप
ध्यान जब, अपूर्व अवसर ऐसा किस दिन आयेगा' - स्वरूप की स्थिरता का ध्यान कैसे वर्ते? ऐसा। बाकी दर्शनमोह, जीव और अजीव की एकताबुद्धि का नाश होने पर आत्मा, देह से भिन्न अकेला केवलज्ञान की मूर्ति है - ऐसा अनुभव में आना
चाहिए। समझ में आया ?
अकेला आत्मा ज्ञानस्वरूप, देह से भिन्न चैतन्य । देह से भिन्न अथवा देह अर्थात् रागादि सब पर में जाते हैं। उनसे (भिन्न) अकेला चैतन्यस्वरूप है, वह केवलज्ञान स्वभाव का धारक है। अकेला ज्ञानस्वभाव, ऐसा । केवल अर्थात् अकेले ज्ञानस्वभाव का धारक है । वह शरीर को नहीं धारता है, कर्म को नहीं धारता है, विकार के भाव को नहीं पकड़ता है, अपने में नहीं रखता है; अकेला केवलज्ञान चैतन्यस्वरूप ज्ञानस्वभाव सर्वज्ञ स्वभाव का धारक (है)। केवलज्ञानस्वभावी शब्द लिया है न ? फिर इन्होंने ' धारक' शब्द का प्रयोग किया है।
केवलणाण सहाउ उसका स्वभाव ही अकेला ज्ञानस्वरूप चैतन्य है। ऐसा अन्तर में जीव का भान, ज्ञान होने पर मुणि जीव तुहुँ । जइ चाहहिं सिव-लाहु यदि मोक्ष का लाभ चाहता हो, अर्थात् निर्मल आनन्द की पूर्ण पर्याय की प्राप्ति को चाहता हो तो इस