________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
२८३
कारण, हे योगी! भगवान ने तुझे ऐसा कहा है – ऐसा कहते हैं। जीव-अजीव का भेदज्ञान होवे तो इसे मोक्ष-कारण होता है – ऐसा भगवान ने कहा है। इसमें बहुत आ गया है।
अन्त में समयसार का श्लोक भी दिया है। जीव और अजीव, लक्षण से ही भिन्न है, इसलिए ज्ञानीजन अपने को सर्व रागादि और शरीरादि से ही भिन्न ज्ञानमय प्रकाशमान एकरूप अनुभव करते हैं। पर से भिन्न और स्व-स्वभाव से एक आत्मा। अपने शुद्धस्वभाव से एक अभेद आत्मा और रागादि से पर (-भिन्न) – ऐसा भेदज्ञान करे तो उसे स्वभावसन्मुख की एकता होती है और उसमें से परसन्मुखता जाती है, तो निश्चित इसे अनुभव करने से मोक्ष होता है। इसे मुक्ति अर्थात् निर्मलानन्द शुद्ध, राग से भिन्न है – ऐसा अन्तर भासित होने से – एकता होने से राग से छूटकर वीतराग पद को पाता है। अब सार कहते हैं।
आत्मा केवलज्ञान स्वभावधारी है केवल-णाण-सहाउ सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ। जइ चाहहि सिव-लाहु भणइ जोइ जोहहिं भणिउँ॥३९॥
योगी कहे रे जीव तू, जो चाहे शिव लाभ।
केवलज्ञान स्वरूप निज, आत्मतत्त्व को जान॥३९॥ अन्वयार्थ – (जोइ ) हे योगी!(जोइहिं भणिऊँ) योगियों ने कहा है कि (तुहुँ केवल-णाण-सहाउ सो अप्पा जीव मुणि) तू केवलज्ञान स्वभावी जो आत्मा है उस ही को जीव जान (जइ सिय-लाहु चाहहिं) यदि तू मोक्ष का लाभ चाहता है (भणइ) ऐसा कहा है।
३९ - आत्मा केवलज्ञान स्वभाव का धारक है। पहले, जीव-अजीव दो भिन्न किये न? तब अब जीव की पहचान देते हैं। पहले सामान्य बात की थी। ग्रन्थकार आचार्य स्वयं कहते हैं -