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________________ वीर संवत २४९२, आषाढ़ शुक्ल ४, गाथा ३८ से ४२ बुधवार, दिनाङ्क २२-०६-१९६६ प्रवचन नं. १५ ३८ (गाथा) थोड़ी बाकी है। जीव-अजीव का भेद..... योगसार। जीवाजीवहँ भेउ, जो जाणइ तिं जाणियउ। मोक्खहँ कारण एउ, भणइ जोइ जाइहिं भणिउ॥३८॥ हे धर्मी ! ऐसा सम्बोधन करके कहते हैं, हे योगी! योगसार है न? आत्मा... जड़ और चैतन्य दोनों अत्यन्त पृथक् हैं – ऐसा जो भेदज्ञान करे तो आत्मा को – स्वयं को शुद्ध ज्ञान और आनन्दमय देखे और अजीव को राग-द्वेष, कर्म आदि स्वरूप देखे। समझ में आया? जीवाजीवई भेउ जो झाणइ जो जीव-अजीव का भेद जाने। जीव, वह ज्ञान, शुद्धआनन्द आदि स्वरूप है; अजीव, ये सब रागादि, शरीरादि, कर्म – ये सब अजीव हैं। दोनों का सम्बन्ध न होवे तो बन्ध न होवे और दोनों का सम्बन्ध छूटे तब मुक्ति होती है; इसलिए इसे इन दोनों का ज्ञान भलीभाँति करना चाहिए। मोक्खहँ कारण एउ यही मोक्ष का कारण है – ऐसा भगवान ने कहा है। जीव -अजीव का भेदज्ञान, वह मोक्ष का कारण है – ऐसा कहा है। समझ में आया? 'भेदज्ञान, वह ज्ञान है; शेष बुरा अज्ञान' - भेदज्ञान अर्थात् आत्मा और जड़ दो चीजें हैं न? न होवे तो इसे इस सम्बन्ध का बन्ध और बन्ध के अभावरूपी मुक्ति – यह किसी प्रकार सिद्ध नहीं होती। इससे आत्मा और अजीव दोनों के लक्षण भिन्न हैं, दोनों का स्वरूप भिन्न है, दो के भाव अलग हैं – ऐसे यदि दोनों को भलीभाँति भिन्न जाने तो उसे मोक्ष का कारण -पर से भिन्न स्वरूप की श्रद्धा, ज्ञान और शान्ति की दशा प्रगट होती है; अत: उसके
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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