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________________ २८ गाथा-४ दो हजार के पाँच हजार हुए, हैं ? पहले साधारण व्यापार करते थे, उसमें पाँच हजार की आमदनी थी। अभी तो पचास-पचास हजार की आमदनी हो गयी। अभी बहुत बादशाही है। मूढ़ है न? परन्तु मूर्ख! किसकी? होली सुलगती है वहाँ । कषाय और मोह वह मिथ्याश्रद्धा से इस मान्यता में सब संसार खड़ा किया, वहाँ कहाँ सुख और दुःख था? ओ...हो...! कैसे होगा? धीरुभाई ! हैं, कान्तिभाई ! पाँच सौ-पाँच सौ का वेतन हो, अकेला हो, लो! तो वह कितना अधिक अनुकूल लगेगा, सब व्यवस्था (होवे) आहा...हा...! धूल में भी नहीं। विपरीत मान्यता से मोहित यह पर में सुविधा-असुविधा अज्ञानी मान रहा है। कहो, बाबूभाई! क्या होगा यह ? लो, शब्द क्या है ? एक तो काल अनादि, संसार अनादि, भवसागर अनादि। संसारी (अर्थात्) जीव अनादि, ऐसा। मुमुक्षु - अनन्त लिखा है। भवसागर अनन्त.... उत्तर - यह भव सागर अनन्त है न अनादि का? अनन्त संसार है। अनादि का अनन्त है। आहा...हा...! कहीं अन्त है ? चौरासी के अवतार में कहाँ इसका अन्त है ? अनन्त भव... अनन्त भव... अनन्त भव... अनन्त-अनन्त भव। उसमें मिथ्यादर्शन से मोहित है, वर्तमान बात करते हैं। जहाँ-जहाँ तू है, वहाँ तेरी विपरीत श्रद्धा से मोहित है। यह महान संसार का मूल कारण पहले लिया है। समझ में आया? सात व्यसन से भी यह पाप बड़ा है, यह बाहर के इन्द्रिय संयम और बाहर का त्याग करे परन्तु अन्दर में जिसे अभी दया-दान के भाव हुए, मुझे धर्म है, उनसे धर्म होगा (-ऐसे) मिथ्यादर्शन में मोहित प्राणी अनादि का अज्ञानी है। समझ में आया? आहा...हा...! ___ बाहर का जरा त्याग हुआ और संयम लिया ऐसा माना। कहाँ संयम था? आत्मा के भान बिना, सम्यग्दर्शन और अनुभव के बिना जो चैतन्यमूर्ति आत्मा है, उसका तो अन्दर में भान नहीं और यह दया-दान-व्रत-भक्ति और क्रियाकाण्ड यह सब तो राग है। इस राग का विवेक सम्यग्दर्शन से होता है, मिथ्यादर्शन में इसका अविवेक रहता है, विपरीत श्रद्धा के कारण उसका अत्याग रहता है। मुमुक्षु - किसका?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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