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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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है; जिसमें दुःख है, उसमें सुख मानता है; दुःख है, उसे सुख मानता है । यह भाव इसे क्यों है ? मिथ्यादर्शन के कारण मोहित हुआ। समझ में आया ? विपरीत श्रद्धा की। भगवान आत्मा पूर्णानन्द (स्वरूप है) ।
‘उपजे मोह विकल्प से' आता है न, श्रीमद् में ? ' उपजे मोह विकल्प से, समस्त यह संसार, उपजे मोह विकल्प से' । वहाँ कर्म-फर्म की बात नहीं है। पर में सावधानी, राग में पुण्य में उसके फल में, इस मिट्टी में, इन्द्रियों में, शरीर में, उसकी अवस्था में, बाहर की सुविधाओं में, असुविधाओं में इसमें मुझे यह दुःख और मुझे यह सुख - ऐसी कल्पना, वह मिथ्यादर्शन है। समझ में आया ? ' उपजे मोह विकल्प से' स्वरूप के भान बिना पर की सावधानी की मिथ्या श्रद्धा से 'उपजे मोह विकल्प से, समस्त यह संसार'। यह सारा संसार विकार में उत्पन्न होता है ।
'अन्तर्मुख अवलोकते'' परन्तु भगवान आत्मा शुद्ध आनन्दकन्द सच्चिदानन्द प्रभु है, ऐसे 'अन्तर्मुख अवलोकते विलय होत नहीं वार' । संसार का व्यय होकर मुक्ति का उत्पाद होवे, उसमें इसे देर नहीं लगती परन्तु इस मिथ्यादृष्टि के कारण अनादि से मोहित है । आहा...हा... ! एक जरा सी सुविधा मिले वहाँ तो ऐसा मानो... आहा... हा...! पच्चीस (रुपये) का वेतन हो और तीस ( होकर) पाँच बढ़े, वहाँ तो इसे घर में हर्ष होता है, लो! पाँच बढ़े वहाँ (ऐसा कहता है) आज लापसी करो, लो ! महीने में पाँच बढ़े, बारह महीने में साठ बढ़े... हैं ? और जहाँ इससे कुछ और पाँच घटे और कुछ गुनाह हुआ.... जाओ... ! हाय... हाय... ! समझ में आया ? मोह के कारण, व्यर्थ का... बाहर में घटा-बढ़ा वह कहाँ तेरे आत्मा को छूता है ? परन्तु कल्पना से बड़ा और कल्पना से घटा... अज्ञानी ऐसा मानता है। लड़का हुआ, लड़का अब हमारा वंश रहा, हमारे धूल रही, तेरा वंश वहाँ कहाँ से रहा ? तू यहाँ और वहाँ वंश कहाँ से आया ? समझ में आया ? कुछ दुकान बढ़िया चली (तो).... आहा...हा... ! अब हम बढ़े, हाँ ! हरिभाई !
'लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी पर बढ़ गया क्या बोलिये' - सोलह वर्ष में पुकार करते हैं, हाँ! 'परिवार और कुटुम्ब है क्या वृद्धि नय पर तौलिये'.... अरे ! मिथ्या मोह कारण यह बढ़ा, ,मेरा वेतन बढ़ा, मेरा वेतन । तेरा वेतन अर्थात् क्या ? आत्मा का वेतन बढ़ा ?