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गाथा-४
समझना, श्रद्धा करना यह कुछ नहीं रहता । शास्त्र क्या, उसे समझना कुछ नहीं रहता । समझ में आया ? इसलिए संसारी जीव अनादि है । दो बातें (की) ।
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तीसरा भव सायरुजि अणतुं चौरासी के अवतार भी अनादि के हैं । कोई पहला अवतार है - ऐसा है नहीं । नरक में अनन्त बार गया, स्वर्ग में अनन्त बार गया, निगोद में अनन्त भव किये - पशु में अनन्त बार गया; मनुष्य अनन्त बार हुआ । यह भवसागर महा गहरा अनादि का है - ऐसा कहते हैं । काल अनादि, भगवान जीव भूला हुआ अनादि.... 'अपने को आप भूलकर हैरान हो गया।' स्वयं ही स्वयं को अनादि से भूला हुआ है क्योंकि इसकी दृष्टि इन्द्रिय ऊपर है। भगवान अन्दर कौन है ? इसका उसे पता नहीं है । उसका माहात्म्य नहीं है, इसलिए कर्मजन्य उपाधि, उसके लक्ष्य से उसके अस्तित्व में अपना अस्तित्व स्वीकार किया है। इस प्रकार स्वयं सत्ता भिन्न आनन्दकन्द है - ऐसी स्वसत्ता की अन्तर्मुखदृष्टि नहीं है । बहिर्मुखदृष्टि में इन्द्रियाँ, अल्पज्ञान, राग-द्वेष आदि का अस्तित्व दिखाई देता है। समझ में आया ? वह संसार है ।
संसार सागर भी अनादि अनन्त है... लो, समझ में आया ? अनादि अनन्त है । भवसागर अनादि है, इतना समझ में आया ? संसार अनादि है । यहाँ तीन लेना है। अनादि लेना है, भविष्य की बात नहीं लेना... भव सागर भी अनादि का है । अब कैसे अनादि का और कैसे संसार है ? काल अनादि, जीव अनादि, भव सागर भी अनादि । वह है कैसे इस भव सागर का भटकना ? उसका सिद्धान्त सिद्ध करते हैं ।
मिच्छादंसण मोहियउ लो ! मिथ्या श्रद्धा से मोहित होता हुआ... यह सिद्धान्त है अकेला। कर्म-फर्म के कारण नहीं, हाँ! मिथ्या श्रद्धा से मोहित, भगवान आत्मा के आनन्दस्वभाव को भूला हुआ और पुण्य और पाप के भाव, शरीरादिक की क्रिया, उसका अस्तित्व ऐसा देखता है । अन्दर में पूर्ण अस्तित्व है, उसका इसे पता नहीं है; पता नहीं है इसी का नाम मिथ्यात्व है । अज्ञान, मिथ्यात्व, एकान्त मिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व - ऐसे मिथ्यात्वों से अनादि काल से मोहित है । मिथ्या श्रद्धा में विमोहित है, उसमें इसे रुचि है, उसमें इसकी प्रीति है । जगत की कर्मजन्य उपाधि के संयोग में इसकी लगन लगी है, मिथ्यादर्शन के मोह के कारण... समझ में आया ? जिसमें सुख नहीं है, उसमें सुख मानता