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योगसार प्रवचन (भाग-१)
उत्तर - राग का। श्रद्धा में राग का अत्याग, वह मिथ्यादर्शन से मोहित, विकल्प की सूक्ष्मता, दया, दान, व्रतादि का जो अन्दर उठे, उसे मिथ्यादर्शन से मोहित प्राणी उसे स्वयं को लाभदायक मानता है। कहो, समझ में आया?
मुमुक्षु - पूरा जगत मानता है।
उत्तर - पूरा जगत उसमें पड़ा है। यह तो अनादि की बात करते हैं। साधु होकर बैठा... साधु किसे कहना? आत्मा का भान तो अभी है नहीं। जिसमें अनादि उदय संसार, स्वभाव में नहीं, उसे एक समय का राग विकल्प मेरा है, लाभदायक माना है, वह महामिथ्यादर्शन से मोहित प्राणी है। समझ में आया? उसका सब त्याग और बाहर का वैराग्य वह अज्ञान-पाड़ा खा जाता है। आहा...हा...! समझ में आया?
एक ही बात ली है - मिच्छादंसण मोहियउ समझ में आया? फिर सातवीं गाथा में कर्म नहीं डाला, देखा था, उन्होंने वहाँ क्या किया है ? सातवीं में आता है न? वहाँ भी मिथ्यादर्शन आता है, हाँ! सातवें में कहीं आता है न? सातवें में आता है, सात में । वहाँ भी मिच्छादसण मोहियउ वहाँ मिथ्यादर्शन और मोही जीव इतना लिया है। मैंने कहा, वहाँ क्या लिया है ? पहले से डाल न ! भाई ! मूल कर्म बिना तो लोगों को चलता नहीं, हैं! क्या कहा?
मुमुक्षु - रट गया है।
उत्तर - रट गया है, भाई ! तेरा आत्मा उस राग के बिना रह सके ऐसा तत्त्व है। उसे तू रागसहित रह सकता हूँ, उसके बिना नहीं रह सकता, यह मिथ्यादर्शन से मोहित मूढ़ बहिरात्मा है। समझ में आया? अथवा यह बहिर अर्थात् रागादि पुण्यभाव दया, दान, व्रत, भक्ति का भाव, उसके द्वारा मेरा निश्चय प्राप्त होगा, वह मिथ्यादर्शन से मोहित प्राणी राग का त्याग करना नहीं चाहता। समझ में आया?
मिच्छादसण मोहियउ मोहि होता हुआ.... सुह ण वि - सुख प्राप्त नहीं करता... लो! यह सिद्धान्त । फिर शब्द वहाँ यह लिया है। मिथ्याश्रद्धा से मोहित प्राणी सुख को प्राप्त नहीं करता। सुख और दुःख ऊपर ही शुरुआत की है क्योंकि दुनिया को सुख चाहिए है न? मिथ्याश्रद्धा के कारण, वह गहरे-गहरे जिसे आत्मा के स्वभाव का पता