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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
की शिला बड़ी लम्बी हो, ऊँची इतनी हो तो फिर ऐसे गिर जाये तो ? थोड़ी ऐसी लम्बी हो, थोड़ी ऐसी लम्बी हो तो गिर जाये तो दिक्कत नहीं आवे, इतना होवे तो फिर ऐसा करने से ऐसा हो जाये तो ? लम्बी शिला ऐसी होती है न ? शिला आत्मा है, कहते हैं ।
वही पर्वत की गुफा है.... वह व्यवहार छोड़ने को कहा है न ? ऐसा व्यवहार छोड़ने को कहा, इसलिए यह सब व्यवहार नहीं, ऐसा कहते हैं। मूल तो इसके साथ में सम्बन्ध है भाई ! वह व्यवहार छोड़ने को कहा है न ? वह सब व्यवहार है, ऐसा कहते हैं । वही सिंहासन है, वही शय्या है, ऐसा असंगभाव और शुद्ध श्रद्धान जिसे होता है वही सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है..... कहो ? वही जीव नौका पर आरूढ़ हुआ है । आत्मा के अन्तर एकाग्रता और अनुभव की नौका पर आरूढ़ है। वह संसार सागर से पार करनेवाली है । आहा... हा...!
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व्यवहार के मोह से कर्म का क्षय नहीं होता । जो अहंकार करता है कि मैं मुनि..... हूँ, मैं पंच महाव्रतधारी हूँ, यह सब अहंकार मिथ्यात्व है । मैं तपस्वी हूँ, वह व्यवहार का मोही मोक्षमार्गी नहीं है । व्यवहार की सावधानीवाला मोक्षमार्गी नहीं है। निश्चय की सावधानीवाला मोक्षमार्गी है - ऐसा कहते हैं। पाठ में है न ? जइ सहुववहारु छंडवि अकेला भगवान आत्मा..... अप्पामुणहि है न ? आत्मा ही जाने, आत्मा को ही सब जाने, ऐसा। मुनियों का नग्न वेश और श्रावक को वस्त्रसहित का वेश निमित्तकारण है तो भी मोक्ष का मार्ग तो एक रत्नत्रय धर्म ही है । दूसरा मोक्षमार्ग नहीं है । कहो, समझ में आया ? लो, यह ३७ गाथा (पूरी) हुई।
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जीव- अजीव का भेद जानो
जीवाजीवहँ भेउ, जो जाणइ तिं जाणियउ ।
मोक्खहँ कारण एउ, भणइ जोइ जाइहिं भणिउ ॥ ३८ ॥
जीव अजीव के भेद का, ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान ।
हे योगी! योगी कहें, मोक्ष हेतु यह जान ॥ ३८ ॥