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________________ २७८ गाथा-३७ अनुभव करो, यह अनुभव एक ही मोक्ष का मार्ग है। कहो, समझ में आया? फिर दूसरा थोड़ा सा डाला है। सम्यक्दृष्टि के देव-गुरु-शास्त्र, घर, उपवन सब ही एक अपना ही शुद्धात्मा है.... क्या कहा? इस धर्मी जीव का देव आत्मा... लो! क्या? धर्मी जीव का गुरु यह आत्मा... उसका शास्त्र भी यह आत्मा... देव-गुरु-शास्त्र पर है न? व्यवहार से भिन्न किया। पर है अवश्य न? यह घर आत्मा.... इस आत्मा का घर अन्दर आत्मा... यह घरबर कैसा? शरीर, वाणी, मन तो कहीं रह गये, वे तो धूल हैं। बाहर के मिट्टी के घर तो कहीं रह गये, वे तो जड़ के घर थे। यह मांस का पुतला... यह कहाँ आत्मा का घर है ? भगवान सच्चिदानन्द प्रभु 'सिद्ध समान सदा पद मेरो' ऐसा आत्मा, उसका घर अन्दर आत्मा है, आहा...हा...! ऐसा भगवान का फरमान है। कहो, यह तुम्हारे २२-२२ मंजिल के मकान, यह घर नहीं, कहते है। हैरान होकर चला जायेगा। हैं ? आहा...हा...! उपवन... आहा...हा...! कहते हैं कि लोग घूमने जाते हैं न? उपवन, वन में... धर्मी का उपवन कौन? आत्मा उपवन है। घूमकर वहाँ हृदय जाता है, आहा...हा...! बाग -बगीचे में घूमते हैं न? मुम्बई में क्या कहते हैं ? हैंगिंग गार्डन.... हवा इतनी ठण्डी थी, हम गये तब । वहाँ तो सर्दी हो गयी थी। यह कहते हैं कि वहाँ क्या है? हमें तो प्रातः घूमने जाना है। धूल में भी नहीं, कहते हैं। आत्मा उपवन है। आहा...हा...! समझ में आया? सब ही एक अपना ही शुद्धात्मा है.... शुद्धात्मा, हाँ! अशुद्ध पर्याय, रागादि, निमित्त आदि सब छोड़ने योग्य है । वही आसन है.... देखो, यह आसन लगाओ, अच्छा आसन ढूँढकर... यह आसन आत्मा है, भाई! अच्छा आसन लगाओ। किसका? जड़ का? वह तो मिट्टी है अन्दर आसन ज्ञानानन्द भगवान को दृष्टि में लेना, वहाँ स्थिर होना, वह उसका आसन है। 'आसन मारी सूरत दृगधारी, देख्या अलख दे दार' अन्दर में आसन लगाकर, अन्दर में असंख्य प्रदेश में स्थिर हो, वह इसका आसन है। शरीर-फरीर ऐसा करना, ऐसा करना, धूल भी नहीं... वह तो जड़ है। ऐसा रखो (ऐसा कहते हैं)। वह चाहे जैसे रहे, वह तो जड़ है। वही शिला है.... अच्छी शिला ढूँढकर जंगल में जाकर ध्यान करना, हाँ! पत्थर
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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