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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) २७७ श्रद्धा नहीं है। भगवान के उपदेश की श्रद्धा नहीं है। कहो, समझ में आया इसमें? वैसे तो कहे, हे भगवान! तुमने भी यह कहा क्या यह तो तुम्हें पता नहीं। उन्होंने यह कहा है कि व्यवहार छोड़कर निश्चय आदर! – यह उनकी आज्ञा और उपदेश है। बारह अंग और चौदह पूर्व के कथन का सार - मक्खन यह है। बारह अंग और नौ पर्व का अन्तरंग सार यह है। भगवान आत्मा एक समय में अनन्त आनन्द का कन्द प्रभु है, उसका अन्तर आश्रय करके अनुभव कर। जितना व्यवहार है, जब तक अन्दर व्यवहार का विकल्प रहेगा, तब तक अन्तर अनुभव नहीं हो सकेगा। ऐसी भगवान की आज्ञा और उपदेश है। जब तक तेरा (लक्ष्य) भेद पर, राग पर, निमित्त पर इत्यादि गुण-गुणी के विचार पर लक्ष्य रहेगा, तब तक भगवान की आज्ञा है, और वैसा स्वरूप है। भगवान की आज्ञा है और ऐसा वह स्वरूप है कि जब तक ऐसे व्यवहार का लक्ष्य रहेगा, तब तक निश्चय में – अन्तर में नहीं जाया जा सकेगा - ऐसा उसका स्वरूप है। ऐसी भगवान की आज्ञा है। कितना कहा? कितना क्या? अनन्त गुना पक्का है यह । ठीक, यह पुराने लोग इसलिए जरा अन्दर डाला करते हैं । देखो, सिद्धों का ध्यान करता है तो भी सिद्धों को पर मान कर उनके ध्यान को भी त्यागने योग्य जानता है, क्योंकि वहाँ भी शुभ का अंश है। (और तो क्या) गुणगुणी भेद का विचार भी परिग्रह है, व्यवहार है, त्यागने योग्य है, क्योंकि इस विचार में विकल्प है, जहाँ विकल्प है, वहाँ शुद्धभाव नहीं। आहा...हा... ! यद्यपि इस विचार का आलम्बन दूसरेशुक्लध्यान तक है तथापि सम्यग्दृष्टि इस आलम्बन को भी त्यागने योग्य जानता है। ठीक किया है। आता है न? अवलम्बन आवे, बयालीस भेद आदि परन्तु वह त्यागने योग्य है। अन्तर में यह आदरने योग्य है – ऐसा कहते हैं। भेद पड़ा इसलिए वह ध्यान है – ऐसा नहीं। अवलम्बन छुड़ाया, निमित्त छोड़ने योग्य है, अन्दर में स्वभाव तरफ की अभेदता में, एकरूपता में जाना वह आज्ञा है, और वस्तु भी ऐसी है। ऐसे भेद से किसी प्रकार अन्तर पकड़ा नहीं जा सकेगा। यह चीज ऐसी है, इसलिए भगवान की आज्ञा ऐसी है कि अन्तर स्वभाव का आश्रय करके
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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