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गाथा-३७
-चारित्र का जितना विषय है, वह सब छोड़ने योग्य है। समझ में आया? इस गाथा का नीचे अर्थ है । व्यवहारधर्म – दया, दान, व्रत, भक्ति के परिणाम, वह व्यवहार धर्मपुण्य है। व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र... व्यवहार सम्यग्दर्शन (अर्थात) नव तत्त्व की श्रद्धा, भेदवाली श्रद्धा, भगवान की श्रद्धा, व्यवहार सम्यग्दर्शन; शास्त्र का ज्ञान व्यवहार ज्ञान; पंच महाव्रत का परिणाम व्यवहारचारित्र और इनका जो विषय, वह सब त्यागने योग्य है। समझ में आया? है न? पाठ में है या नहीं?
सहुववहारु छंडवि सर्व व्यवहार, ऐसा इसमें शब्द पड़ा है न? सर्व व्यवहार में तो बहुत सूक्ष्म बात ली है। परवस्तु छूटी, राग छोड़। समझ में आया? देव-गुरु-शास्त्र की भक्ति का विकल्प छोड़, यह गुण-गुणी के भेद का विकल्प भी छोड़... यह सब व्यवहार है। जइ और लहु दो शब्द पड़े हैं न? अद्भुत लिखा है, हाँ! आहा...हा... ! सम्यग्दृष्टि चाहे गृहस्थ हो या साधु हो, केवल अपने शुद्धात्मा को ही अपना हितकारी जानता है। शेष सर्व को त्यागनेयोग्य परिग्रह जानता है। कहो, इसमें समझ में आया? यह परिग्रह है न?
सर्व कार्य को व्यवहारधर्म जानकर छोड़ने योग्य समझता है क्योंकि व्यवहार के साथ राग करना, कर्मबन्ध का कारण है। ठीक! फिर, देखो ! वहाँ तक लिया... सिद्धों का ध्यान करता है तो भी सिद्धों को पर मानकर उनका ध्यान भी छोड़ने योग्य है - ऐसा जानता है। सर्व शब्द पड़ा है न? भगवान सिद्ध समान हूँ, सिद्ध भगवान जैसा (हूँ) यह भी एक विकल्प है। हैं?
मुमुक्षु - बहुत जानने की गाथा है।
उत्तर – बहुत पकड़ने की गाथा है। सर्व शब्द पड़ा है, इसलिए फिर उसका स्पष्टीकरण होना चाहिए न? जितने व्यवहार के भेद वे सब छोड़ने योग्य हैं, उनका - व्यवहार का कोई अंश आश्रय करने योग्य नहीं है। फिर निमित्त हो, दया, दान के परिणाम हों, एक समय की अवस्थारूप भेद हो, गुण-गुणी के भेद का विकल्प हो, कोई भी विचार आदि हो, वे सब छोड़ने योग्य हैं । तब अन्तर आत्मा की दृष्टि और अनुभव हो सकेगा - ऐसा भगवान का फरमान है। इस आज्ञा से विरुद्ध माननेवाले को भगवान की आज्ञा की