SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) २६७ आया? वह है, इसलिए उसे निश्चय कहा है। है इसलिए निश्चय है, वह अलग... परन्तु जिसमें प्रयोजन सिद्ध करने के लिए आत्मा अभेद है, वह निश्चय है और यह सब भेद, उन्हें वीतराग ने व्यवहार कहा है । वीतराग परमेश्वर ने उन्हें व्यवहार कहा है; अतः उन्हें जानना चाहिए। ववहारे जिण उत्तिया समझ में आया? वजन यहाँ है। भगवान सर्वज्ञ परमेश्वर ने (कहे ऐसे) जगत् में छह द्रव्य हैं, अनन्त आत्मायें, अनन्त परमाणु, असंख्य कालाणु, एक धर्मास्ति, एक अधर्मास्ति, आकाश, इन छह द्रव्यों का ज्ञान करना चाहिए। यह छह द्रव्य व्यवहार से जिन भगवान ने कहे हैं, क्योंकि इनमें निश्चय तो एकरूप आत्मा निकालना, उसे निश्चय कहते हैं। समझ में आया? कहो, प्रवीणभाई ! व्यवहार खोटा है, अर्थात् आश्रय करने योग्य नहीं, त्रिकाल रहनेवाला नहीं, प्रयोजन में उसका आश्रय करने से प्रयोजन सिद्ध नहीं होता – ऐसी बात (कहनी है) परन्तु वस्तु नहीं? समझ में आया या नहीं? नव तत्त्व, छह द्रव्य और नौ तत्त्व – जीव, अजीव, आस्रव, पुण्य-पाप, संवर, निर्जरा, बन्ध, ये नौ हैं, उन्हें भगवान ने व्यवहार कहा है। नौ को भगवान ने व्यवहार कहा है, उसमें से एकरूप आत्मा का आश्रय करना, वह निश्चय है। आहा...हा...! समझ में आया? और सात तत्त्व, लो ! इन सात में वे पुण्य-पाप आस्रव में मिल जाते हैं। ये सातों कहे, उन्हें भगवान ने व्यवहार कहा है। नौ तत्त्व को या सात पदार्थ को अथवा सात तत्त्व को या नौ पदार्थ को व्यवहार कहा है, क्योंकि व्यवहार अर्थात् भेदरूप, अन्यरूप। समझ में आया? ओ...हो...! __यह वस्तु है। योगसार है न? अर्थात् आत्मा एक स्वभाव अन्तर अखण्ड है, उसका आश्रय करना निश्चय वस्तु है, वह प्रयोजन सिद्ध होने में वस्तु है परन्तु वह सिद्ध होना कब? कहते हैं, दूसरी कोई चीज निषेध करने योग्य का ज्ञान किया है या नहीं? तो कहते हैं सात का ज्ञान, नौ का ज्ञान, छह का ज्ञान भगवान ने उसे व्यवहार कहा है। समझ में आया? इसलिए व्यवहार से भलीभाँति छह द्रव्य को जानना चाहिए। यह सर्वज्ञ के सिवाय अन्यत्र कहीं नहीं होते हैं । वीतराग परमेश्वर केवलज्ञानी के अतिरिक्त छह द्रव्य अन्य में कहीं नहीं होते हैं। तब वे छह द्रव्य और छह द्रव्य को जाननेवाली ज्ञान की एक समय की
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy