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गाथा-३५
व्यवहार कहा है। आहा...हा...! समझ में आया? संवर कैसे होता है ? शुद्धि अंश कैसे उत्पन्न होता है? शुद्धि की वृद्धि कैसे होती है? और पूर्णता (कैसे होती है)? यह सब दशायें हैं, ये सब दशायें व्यवहार में जाती हैं। चौदह गुणस्थान व्यवहार में जाते हैं । समझ में आया? अकेला अभेद का – निश्चय का कथन था ठीक, वह ठीक रहे.... परन्तु यह व्यवहार है या नहीं। इसकी समय की पर्याय है या नहीं? उस अभेदनिश्चय में तो पर्याय भी वहाँ तो नहीं आयी। समझ में आया?
एकरूप भगवान आत्मा निश्चयस्वरूप से एकरूप है। व्यवहार से उसे गिनो तो उसकी अवस्थाओं के प्रकार, निर्मल अवस्था के प्रकार, मलिन अवस्था के प्रकार और अन्य द्रव्य के प्रकार - यह सब इसे व्यवहार के प्रयत्न से भलीभाँति जानना चाहिए। आदर करने की बात का यहाँ प्रश्न नहीं है । ज्ञान करने योग्य है या नहीं? व्यवहारनय के विषय का ज्ञान करने योग्य है या नहीं?
मुमुक्षु - आदर करने योग्य नहीं तो फिर ज्ञान करने से क्या फायदा? उत्तर – समझे बिना? खाये बिना, खोरा कर दिया?
यह जाने तो सही कि यह भगवान आत्मा एकरूप चिदानन्द अभेद है तो इसमें संवर-निर्जरा और मोक्ष की दशा.... मोक्ष भले ही सादि-अनन्त (रहे) परन्तु एक भेद है न? भेद है उसे जिण उत्तिया ववहार। भगवान ने उसे व्यवहार कहा है तो उसे भलीभाँति जानना चाहिए। आस्रव, बन्ध, पुण्य-पाप को भगवान ने व्यवहार कहा है। भेद है न? मलिन है, उसे जानना चाहिए। वैसे ही इस आत्मा के अतिरिक्त दसरे अनन्त आत्मायें हैं. उनके अतिरिक्त यह अनन्त कर्म है या नहीं? (वह) जो निश्चय में अभेद में हुआ, शुद्ध में दृष्टि (गयी), तब अशुद्ध है या नहीं? अशुद्ध का ज्ञान चाहिए या नहीं इसे? अशुद्ध है तो अशुद्ध में परचीज कर्म आदि निमित्त है या नहीं? वह परद्रव्य है, उसका ज्ञान करना चाहिए। समझ में आया?
यहाँ तो अपने अधिक विशिष्टता कहनी है कि ववहारे जिण उत्तिया - ऐसा यहाँ अधिक वजन है। इस श्लोक में यह नौ, सात या छह (परन्तु) भगवान ने व्यवहार से उन्हें कहा है। उसका अर्थ कि भगवान ने निश्चय से यह दूसरा कहा है। समझ में