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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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में छह द्रव्य को (जानने की) ताकत... इतना भी जो व्यवहार, यहाँ पर्याय है वह भेद है, छह द्रव्य है, वे अन्य हैं परन्तु इतना व्यवहाररूप से जो न जाने, वह उसका निषेध करके अभेद में किस प्रकार आयेगा? समझ में आया? अन्य से पृथक् और एक समय जितना नहीं.... व्यवहार की बातें आवे, वहाँ कठिन पड़ती है। दूसरे निश्चय में ठीक (लगे) और एक गड़बड़ करके निकाल देता है.... परन्तु इसे जानना चाहिए।
छह द्रव्य को जिण कहिआ – वीतरागदेव द्वारा कथित है और वे वीतरागदेव कहते हैं कि हमने ववहारे जिण उत्तिया नौ के भेदरूप कथन वह व्यवहार है – भगवान ऐसा कहते हैं। वे नौ हैं, इसलिए निश्चय है – ऐसा नहीं है। समझ में आया? नौ में जीव आया... जीव कैसा है? अजीव कैसा है? ऐसा नौ का ज्ञान... दया, दान, व्रतादि के परिणाम पुण्य हैं; हिंसा, झूठ आदि के परिणाम पाप हैं, इन दो को आश्रव कहते हैं; वस्तु इनमें अटके, इसलिए भावबन्ध कहते हैं। आत्मा में आस्रव और बन्ध से निकलकर स्वभाव की ओर जाने से जो शुद्ध संवर-निर्जरा – शुद्धि की उत्पत्ति, शुद्धि की वृद्धि और शुद्धि की पूर्णता (होती है), वे सभी पर्यायें नवतत्त्व में व्यवहाररूप से आती हैं। भगवान ने उन्हें व्यवहार कहा है। समझ में आया? लोगों को सूक्ष्म पड़ता है। यह तो व्यवहार आया तो भी सूक्ष्म पड़ता है। लो!
व्यवहारनय से कहे हैं। ये नौ हैं, वे निश्चय से नहीं; निश्चय से अर्थात् नहीं ऐसा नहीं परन्तु है, परन्तु वे भेदरूप हैं, अन्यरूप हैं, इसलिए उन्हें भगवान ने व्यवहार कहा है। समझ में आया? इन्होंने तो बहुत विस्तार किया है। पर का आश्रय लेकर आत्मा का कथन व्यवहारनय से ही किया जाता है। है इसमें.... समझे न?
मुमुक्षु – व्यवहार वस्तु नहीं।
उत्तर – वस्तु नहीं – ऐसा होता है ? व्यवहार नहीं? व्यवहारनय तो जाननेवाला है, तो उसका विषय नहीं?
भगवान आत्मा एक समय में अभेद पूर्णस्वरूप, वह अपना निजतत्त्व अखण्ड है, उसे यहाँ निश्चय कहते हैं, तब निश्चय की अपेक्षा से उसकी निर्मल अवस्थाओं के भेद पढ़ें, शुद्धि, वृद्धि, और पूर्ण, वह भी व्यवहार है। जिण उत्तिया ववहार वीतराग ने उसे