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गाथा-३५
आत्मा की ज्ञानदशा की एक पर्याय में यह छह द्रव्य जानने की ताकत है, वह व्यवहार है, वह जानना व्यवहार है और स्व को जानना वह निश्चय है। स्व को जानना, निश्चय तो व्यवहार है या नहीं? और उसका ज्ञान होना चाहिए या नहीं? प्रयत्नपूर्वक होना चाहिए या नहीं? ऐसा कहते हैं।
उन्हें प्रयत्न करके जानना योग्य है। जो छह द्रव्य – धर्मास्ति, अधर्मास्ति, आकाश और काल – चार अरूपी (द्रव्य); पुद्गलरूपी, दूसरे अनन्त जीव भी अरूपी - इन सब छह द्रव्यों को जैसे हैं वैसे, इनके द्रव्य अर्थात् वस्तु इनकी शक्ति, इनकी अवस्थाएँ जैसे हैं वैसे व्यवहार से जानना चाहिए। जब छह द्रव्य कहे तब उसका अर्थ यह हुआ कि छहों द्रव्य स्वतन्त्र भिन्न-भिन्न हैं। यदि छह द्रव्यों की पर्याय स्वतन्त्र अपने से होती है – ऐसा जो जानना, अभी उसका नाम तो व्यवहार ज्ञान है, व्यवहार है। समझ में आया? छह द्रव्य है – ऐसा कहने से वे स्वयं द्रव्य, गुण और पर्याय से है। छह वस्तुएँ हैं, वे अपनी वस्तु से है, शक्ति से है, अवस्था से है; उसमें किसी की अवस्था से कोई (होवे) तो वे छह द्रव्य नहीं रहे। समझ में आया?
जाणियह कहा न? जाणियह पयत्त वस्तु नहीं? व्यवहार का विषय नहीं? विषय न हो तो फिर निश्चय नहीं। किसने निषेध किया? इसमें किसका अभाव हुआ?
या अन्य का अभाव हुआ? आस्रव और पुण्य-पाप के बन्ध का अभाव हुआ। संवर, निर्जरा, मोक्ष की अभेद पर्याय में उनका अभाव हुआ, अभेद में वह भेद है नहीं। एक अन्य, एक विपरीत और एक भेद... समझ में आया?
मुमुक्षु - प्रयत्नपूर्वक जानना योग्य है।
उत्तर – जानना; जानना अर्थात् स्वयं स्वतः ज्ञान हो जायेंगे - ऐसा नहीं, यह कहते हैं। जानना कि छह द्रव्य है, शुभविकल्प से यह जानने का प्रयत्न करना। शुभविकल्प है न यहाँ पर ? समझ में आया? हैं ? सुनना, गुरु उपदेश से सुनना, शास्त्र पढ़ना... समझ में आया? यहाँ बात तो दूसरी कहनी है कि जगत् में छह वस्तु है, इतनी जो अभी व्यवहार से न जाने तब तो उसका आत्मा निश्चय, अभेद, एकाकार ऐसी अनन्त पर्याय का पिण्ड है, (उसे) कैसे जानेगा? एक पर्याय में छह द्रव्य जानने की ताकत, एक समय की पर्याय