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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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एकरूप में से अन्यरूप - ऐसे को भगवान ने व्यवहार कहा है। समझ में आया ? वह व्यवहार नहीं जाने, उसे निश्चय नहीं होता और निश्चय है, वह अभेदस्वरूप है, तब भेद क्या है ? और चैतन्य से अन्य क्या है ? कहो, समझ में आया या नहीं इसमें ?
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भगवान अभेद ज्ञायकमूर्ति, वह निश्चय, वह सत्य उसकी दृष्टि करना, वह सम्यग्दर्शन है; तब इससे अन्य अजीव आदि हैं, पुद्गल आदि हैं, वे अन्य हैं, इससे अन्य है । यह अलग, वह अलग उसका ज्ञान तो करना पड़ेगा न ? और आत्मा शुद्ध अभेद है, तब उसमें पुण्य-पाप का आस्रवभाव, अटकना बन्धभाव - • यह आत्मा से विपरीतरूप भाव अन्य है तो इसका भी ज्ञान करना चाहिए और आत्मा - अभेदस्वरूप की दृष्टि करने से उसमें संवर, निर्जरा और मोक्ष भी एक समय की पर्याय - भेद है । वह भेद जिण उत्तिया (अर्थात्) उन्हें वीतराग ने कहा है और वे हैं। समझ में आया ? छह द्रव्य ..... मुमुक्षु – प्रयत्नपूर्वक जाने ।
उत्तर - प्रयत्नपूर्वक न जाने ? व्यवहार को प्रयत्नपूर्वक नहीं जानना ? प्रयत्नपूर्वक आदर नहीं करना। यहाँ जानने की बात है या नहीं ?
मुमुक्षु - इस व्यवहार को निश्चय नहीं होता - ऐसा तो कहकर कहा ।
उत्तर - व्यवहार यह है, तब निश्चय हुआ, ऐसा । निश्चय हुआ अर्थात् ? अभेदपना है, उसमें यह नहीं। तब इसका ज्ञान चाहिए न ? जिससे भिन्न पड़ता हूँ कि अंशरूप मैं नहीं, वह अंशरूप और भिन्न है, वह चीज क्या ? समझ में आया ? इसलिए दो शब्द प्रयोग किये। छह द्रव्य आदि, नव पदार्थ, सात तत्त्व जिन (देव) ने कहे हैं, परन्तु यह जिन (देव) ने व्यवहार कहा है, पुन: ऐसा ले लिया। समझ में आया ? यह निश्चय नहीं है।
हाँ, जिण उत्तिया ऐसा कहा, व्यवहार कहा। समझ में आया ?
ते जाणियह पयत्त निश्चय में.... वीतराग ने निश्चय में ऐसा कहा (कि) तेरा एकरूप भगवान आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप, अनन्त - अनन्त गुण का एकरूप - ऐसा आत्मा वह निश्चय है - ऐसा जिन (देव) ने कहा है । तब यह व्यवहार जिन ने कहा, वह कैसा ? समझ में आया? यह छह द्रव्य भलीभाँति जानना चाहिए, क्योंकि ज्ञान की
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