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गाथा-३४
कहीं नजर डाली नजर पहुँचे नहीं; नजर को अन्त आवे नहीं इतना – अनादि... अनादि... अनादि... अनादि... अनादि... भटककर थोथा उड़ गया इसका, भव कर करके। अनन्त... अनन्त... अनन्त... अनन्त... अनन्त को अनन्त से गुणा करो तो भी अनन्त, इतने भव किये, भाई! आत्मा के भान बिना! एक सम्यग्दर्शन बिना ऐसे भव किये। उसमें व्रत. नियम. तप पालन करके नौवें ग्रैवेयक में अनन्त बार गया, वह तो शुभभाव था। समझ में आया?
आचार्य फरमाते हैं 'अप्पा अप्पइ जो मुणइ जो परभाव चएइ।' देखा? व्यवहार को छोड़कर.... व्यवहार को छोड़कर आत्मा का अनुभव करे। 'सो पावइ सिवपुरिगमणु' लो! वही मोक्षनगर में पहुँच जाता है। वह मोक्षनगरी.... परमात्मा सिद्ध भगवान, णमो सिद्धाणं । उस सिद्धपद को (प्राप्त करता है)। इस आत्मा के शुद्धभाव का अनुभव करे, परभाव – पुण्य-पाप के भाव को अन्तर से छोड़े, स्वरूप में स्थिर हो, वह मुक्तिपुरी को पाता है। ऐसा श्री जिनेन्द्र ने यह कहा है। देखो, आचार्य को डालना पड़ा, भाई! यह हम नहीं कहते, भगवान ऐसा कहते हैं।
___तीन लोक के नाथ, इन्द्रों के पूज्य पुरुष समवसरण में – धर्मसभा में भगवान ऐसा दिव्यध्वनि में कहते थे। आहा...हा...! भाई, तू धीरजवान हो, धीरजवान हो । तेरे स्वरूप में अन्दर अनन्त आनन्द पड़ा है। तेरे स्वभाव में अनन्त आनन्द का सागर डोलता है, आहा...हा... ! ऐसे स्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान से जीव को स्थिरता (होने पर) अल्प काल में उसे मुक्तिनगरी मिलेगी। यह व्यवहार छोड़ तो मिलेगी – ऐसा कहते हैं । इस व्यवहार के द्वारा, इसकी मदद से आगे मुक्ति में जाया जा सकेगा - ऐसा है नहीं। ऐसा जिनवर, जिनवर, जिनेन्द्रदेव त्रिलोकनाथ परमात्मा, परमेश्वर, तीर्थंकरदेव – ऐसा भणेइ, ऐसा भणेइ.... भणेइ अर्थात् ऐसा प्ररूपित करते हैं – ऐसा कहते हैं। लो! आचार्य ने ऐसा दृष्टान्त दिया।
योगीन्द्रदेव भी सिद्ध भगवान को ऐसा कहते हैं, कुन्दकुन्दाचार्यदेव की तरह.... भगवान ऐसा कहते हैं। तीन लोक के नाथ इन्द्रों के समक्ष, गणधरों की उपस्थिति में, भगवान की वाणी में ऐसा आया था कि यह आत्मा परमानन्द की मूर्ति है, इसे पुण्य-पाप के भाव हों, उनमें से दृष्टि छोड़। छोड़ दे उन्हें; छोड़कर स्वरूप में स्थिर हो तो अल्प काल