________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
२५७ देखो! 'जिणवर एउ भणेइ' जिनवर वीतराग परमेश्वर त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव जिनवर ऐसा भणेइ अर्थात् कहते हैं। 'जो अप्पइ अप्पा मुणइ' आत्मा आत्मा को जाने। भगवान आत्मा शुद्ध आनन्दभाव से भरपूर, उसे शुद्धभाव से आत्मा को जाने... समझ में आया? और 'परभाव चण्ड' जो व्यवहार कहा था - मर्दा। स्वभाव का आश्रय लेकर आत्मा निर्विकल्प शुद्ध है, परमानन्द है, उसका आश्रय लेकर शुद्धभाव से आत्मा को जाने, तब अन्तर्मुख होने पर ये विकल्प जो व्यवहार के हैं, वे छोड़े। वे मुर्दे हैं, आत्मा को अन्तर साधन में बिल्कुल सहायक नहीं है। समझ में आया? यह तो योगसार है न ! योगसार है। मोक्षमार्ग का सार । योग अर्थात् आत्मा में जुड़ान । आत्मा में जुड़ान, उसका सार । समझ में आया?
'अप्पा अप्पड़ जो मुणइ' जो परभाव को छोड़ देता है.... शुभ-अशुभभाव, विकार, उन्हें दृष्टि में से छोड़ देता है और जो अप्पइ अप्पा मुणइ' और जो अपने में ही अपने आत्मा का अनुभव करता है.... आहा...हा...! शुभभाव, पहले धर्म होता है
और फिर यह धर्म होता है – ऐसा नहीं कहा है। यह शुभभाव छोड़कर आत्मा का अनुभव करे तो धर्म होता है। उसे रखकर होता है ? आहा...हा... ! अद्भुत बात, जगत् को कठिन (लगती है)। वीतराग परमेश्वर की वीतराग बात.... राग के लोभियों को वीतराग की बात कठिन पड़ती है। आहा...हा...!
मुमुक्षु – इसे रुचती नहीं, शुभभाव छाया लगती है।
उत्तर – छाया ही है यह, धूप कहाँ थी? पुण्य और पाप दोनों धूप है। भगवान आत्मा शान्त, शीतल रस से भरा हुआ, यह पुण्य-पाप के दोनों भाव पाप है, अग्नि है, जहर है, आहा...हा...! कहो, समझ में आया? समाधिशतक का दृष्टान्त (दिया) है। धूप में खड़ा रहे, उसकी अपेक्षा छाया में खड़ा रह न ! कहो समझ में आया? खड़ा है परन्तु जो शुद्धभाव में रहा है, वही पन्थ है। यह वहाँ छाया में खड़ा और पुण्य में खड़ा, इसलिए पन्थ है - ऐसा नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया?
ओ...हो...हो... ! अनन्त काल का जन्म-मरण का भाव, उसे मिटाने का भाव तो कोई अपूर्व ही होगा न! अहो! अनादि काल के.... अनादि... अनादि... अनादि... अनादि...