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________________ २५६ गाथा-३४ यह समझे, क्यों नहीं समझ सकता? समझ सकता है, इसकी अपने घर की चीज है, घर में है, वहाँ घर में सहज साधन द्वारा प्राप्त होते हैं। उसे किसी दूसरे की सहायता की आवश्यकता नहीं है। यहाँ तो विकल्प हो, राग - उसकी भी इसे आवश्यकता नहीं है। इतना तो स्वाधीन और स्वतन्त्र है। यह कहे कि मुझे समझ में नहीं आता। यह सब उल्टा अनादि का। समझ में आया? वह सार है न? उसमें दृष्टान्त दिया है। अब, ३४ वीं गाथा ! आपसे आपको ध्याओ अप्पा अप्पड़ जो मुणइ जो परभाव चएइ। सो पावइ सिवपुरिगमणु जिणवर एउ भणेइ॥३४॥ आत्मभाव से आत्म को, जाने तज परभाव। जिनवर भाषे जीव वह, अविचल शिवपुर जाव॥ ३४॥ अन्वयार्थ - (जो परभाव चएइ) जो परभाव को छोड़ देता है (जो अप्पइ अप्पा मुणइ) व जो अपने से ही अपने आत्मा का अनुभव करता है ( सो सिवपुरिगमणु पावइ) वही मोक्षनगर में पहुँच जाता है (जिणवर एउ भणेइ) – ऐसा श्री जिनेन्द्र ने कहा है। ३४ वीं गाथा। आपसे आपको ध्याओ। देखो, यह व्यवहार व्रतादि के विकल्प, दया, दान, यह सब शुभराग है। इससे आत्मा का जीवन नहीं जिया जाता। तब अपने द्वारा अपना ध्यान करो। भगवान चैतन्य, पुण्य-पाप के विकल्परहित ऐसा अन्दर आत्मा आनन्दमूर्ति, आत्मा का आत्मा से ध्यान करो; राग-वाग को लक्ष्य में से छोड़ दो। समझ में आया? इस मुर्दे को छोड़ दो, कहते हैं । यह मुर्दा जीवित नहीं होगा। यह जीवता जीव होगा, वह जीवित होगा। अप्पा अप्पड़ जो मुणइ जो परभाव चएइ। सो पावइ सिवपुरिगमणु जिणवर एउ भणेइ॥३४॥
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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