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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) २५५ मुमुक्षु – मुर्दे को जीवित करे ऐसी यह दवा है। उत्तर – मुर्दा मरकर दूसरे भव में होवे तब जीवित होता है। इस भव में होता है? इस शुभभाव मुर्दे में से जीव नहीं होता – ऐसा यहाँ कहते हैं। समझ में आया? अद्भुत बात! भाई ! इसमें तो यह सिद्ध किया है। समझ में आया? कि एक आत्मा का शुद्ध स्वभाव.... वह दया, दान, व्रत, भक्ति, तप, पूजा के परिणाम यह शुभभाव है – इस रहित आत्मा की अन्तर निश्चयश्रद्धा, ज्ञान, आत्मा की शान्ति, यह एक ही धर्म और यही मोक्ष का कारण है । यह न हो और अकेले व्रतादि, बाल ब्रह्मचर्य आदि ऐसे भाव पाले तो कहते हैं कि अमाननीय है, अपूजनीय है, मुर्दा है, सन्तों से उसे निकाल देने योग्य है । मुर्दा घर में नहीं रखा जाता, निकाल दे। समझ में आया? इसमें समझ में आया? यह वीतराग परमेश्वर की बात है, यह कहीं किसी के घर की बात नहीं है। सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ वीतराग परमेश्वर, जिन्हें एक सेकेण्ड के असंख्य भाग में तीन काल-तीन लोक जाने, उनकी वाणी में आया – परमात्मा की वाणी में (आया)। कहो, समझ में आया? अनन्त तीर्थंकर हुए, वर्तमान महा-विदेह में सीमन्धर भगवान तीर्थंकर विराजमान हैं। उनकी वाणी में यह आता है, वह आया है। अरे! चैतन्य की जाति को तूने झिंझोड़ कर जगाया नहीं और अकेले विकल्प की – दया, दान, व्रत के परिणाम को तूने रखा, मुर्दा है, कहते हैं। आहा...हा...! कहो, प्रवीणभाई! क्या कहे? डण्डा मारते होंगे कोई? समझे? तीन लोक में सार होवे तो यह है; वह (राग की मन्दता आदि) सार नहीं है। ओ...हो...! इसमें तो कितने ही न्याय दिये हैं। तीन लोक में पूज्य है न? भाई! इसकी अपेक्षा से निकाला, ३३वीं गाथा.... तीन लोक में सार, आत्मा शुद्ध अखण्डानन्द प्रभु की दृष्टि, अन्दर अनुभव ज्ञान और उसमें रमणता – चारित्र, यह तीन लोक में सार और पूज्य है। इसके बिना – इस भानरहित अकेले व्रतादि, अकेले तपादि क्रियाकाण्ड का शुभभाव वह सब जैन शासन को मान्य नहीं है। वह अपूज्यनीय मुर्दा है, उसे निकाल देने योग्य है, वह जीव में मिलाने योग्य नहीं है परन्तु यह राग-मुर्दा चैतन्य में मिल ही नहीं सकता। आहा...हा...! समझ में आया? शशीभाई ! बात अद्भुत, कठिन है। कहते हैं ?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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