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________________ २५४ गाथा-३३ वीतराग परमेश्वर के मार्ग में आत्मा वीतरागस्वरूप परमानन्दमूर्ति की वीतरागीदृष्टि, अन्दर निर्विकल्प वीतरागी ज्ञान, उसके जीवन को जीवन कहा जाता है। उस जीव को जीवित जीव कहा जाता है। आहा...हा...! समझ में आया? यह पैसेवाले भी मुर्दा होंगे? यह वकील-वकील भी? | मुमुक्षु – इनके बाप-दादा भी। उत्तर – इनके बाप-दादा नहीं। बाप-दादा में कहाँ तुम्हारे जैसी चतुराई थी? माणिकचन्दभाई की.... ऐ....ई....! बाप-दादा नहीं। इस वकालात की पढ़ाई, यह सब मुर्दा है – ऐसा कहते हैं । माणिकचन्दभाई में कहाँ वकालात थी? ऐ... हरिभाई ! तुम्हारे पिता के पास कितने पैसे थे? और अभी पचास लाख या साठ लाख हो गये। हरिभाई! केशूभाई के समय कहाँ धूल भी उसके कारण हुआ है ? मुर्दा हैं सब, मुर्दा । सत्य बात है ? भगवान आत्मा सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ परमेश्वर ने पवित्र आत्मा अनन्त शुद्धभाव से भरपूर भगवान आत्मा देखा है। ऐसे शुद्धभाव की अन्तर श्रद्धा-ज्ञान, वह जीव का जीवन है। ऐसे जीव के जीवन बिना लक्ष्मी से (अपने को) बड़ा मानकर जीवे, वे तो सब मर गये मुर्दे हैं। वे तो मुर्दे परन्तु पंच महाव्रत, दया, दान, व्रत, भक्ति, आजीवन शरीर का ब्रह्मचर्य.... समझ में आया? ऐसे भाववाले भी शुद्धभाव की श्रद्धा ज्ञानरहित वे सब मुर्दे हैं। आहा...हा...! समझ में आया? हैं ? मुमुक्षु – कड़क दवा है। उत्तर - कड़वी दवा है, कहते हैं । कठोर रोग हो तो इंजैक्शन ऐसा बड़ा, लम्बा देते हैं । देखा है ? गले न उतरे तो मोटा ऐसा चढ़ाते हैं? क्या कहलाता है तुम्हारे यहाँ ? ग्लूकोज की ऐसी बोतल चढ़ाते हैं । इसी प्रकार भगवान यह बोतल चढ़ाते हैं । इंजैक्शन लगाते हैं, मूढ़ ! मर गया है तू? भगवान आत्मा अनन्त गुण का पिण्ड प्रभु, शुद्ध चैतन्यमूर्ति अनन्त गुण की खान ऐसे आत्मा की तुझे अन्तर्मुख होकर सम्यक्श्रद्धा-ज्ञान नहीं और तुझे पुण्य का दया, दान, व्रत का परिणाम से हमारा जीवन है और हम कुछ करते हैं..... मर गया मुर्दा है। तुझे जीव कौन कहे ? आहा...हा...! अद्भुत बात भाई!
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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