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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) २५३ अकेले पाँच महाव्रत और बारह व्रतादि या उसके योग्य जो क्षुल्लकपने का भाव लोन, वह पालता हो तो वह सब मुर्दा है। जैनशासन के स्तम्भ में नहीं मिलते, जैनशासन के स्तम्भ में नहीं मिलते। वहाँ तो जीवताजीव मिलते हैं। आहा... हा...! ऐसे मुर्दे उसमें हाथ नहीं आते, साथ नहीं मिलते। समझ में आया ? दो गाथायें रखी हैं, हाँ ! जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं ॥ १४४ ॥ देखो ! श्रावक और मुनि में मुख्य धर्म तो सम्यग्दर्शन है। आत्मा शुद्ध चैतन्यमूर्ति अखण्डानन्दकन्द का अन्तर अनुभव का सम्यग्दर्शन, वह श्रावक और मुनि के धर्म में मुख्य तो वह है। समझ में आया ? मुनि और श्रावक दोनों के धर्म में सम्यग्दर्शन शोभता है। लो ! समझ में आया ? आत्मा परम पवित्र प्रभु, शुद्धभाव से भरपूर पदार्थ, शुद्धभाव से भरा भगवान उसकी शुद्धस्वभाव की दृष्टि का अनुभव, उसकी दृष्टि, उसका - आत्मा का ज्ञान और उसमें रमणता अथवा दर्शन और ज्ञान – दोनों की यहाँ मुख्यता ली है। ऐसे शुद्ध आत्मस्वरूप की श्रद्धा और ज्ञान के बिना जीव अकेले पंच महाव्रत पालते हों, बारह व्रत पालते हों, ब्रह्मचर्य पालते हों, दया पालते हों, करोड़ों का दान करते हों, वे सब भाव मुर्दे हैं। आहा...हा.... ! समझ में आया ? वह सब राग - भाग है, मर गया मुर्दा है। रतनलालजी ! अद्भुत बात भाई ! आहा... हा...! भगवान आत्मा एक सेकेण्ड के असंख्य भाग में सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ तीर्थंकर परमेश्वर ने पूर्णानन्द अनन्त गुण का पिण्ड प्रभु देखा है । उसमें यह पुण्य - पाप के विकाररहित आत्मा हैं । शरीर की क्रियारहित आत्मा है, ऐसे आत्मा को, पूर्ण शुद्धस्वरूप के भाव को अन्तर दर्शन और ज्ञान द्वारा जो अनुभव और प्रतीति करे, उसे यहाँ श्रावक और मुनि कहा जाता है। इस सम्यग्दर्शन के बिना, आत्मा शुद्धभाव के भान बिना, शुद्ध श्रद्धा के ज्ञान बिना अकेले पंच महाव्रत, अट्ठाईस मूलगुण, बारह व्रत, दया, दान, भक्ति आदि का क्रियाकाण्ड, पूजा, श्रावक के छह आते हैं न ? छह कर्तव्य, वे सब निरर्थक, निरर्थक मुर्दा हैं। आहा... हा...! समझ में आया ?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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