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मुमुक्षु - इसका अर्थ तो स्पष्ट है ही न !
उत्तर - यह स्पष्टता से माने तब न ? तुम्हारे पास पुस्तक नहीं है ? यह शास्त्र का आधार है, यह भावपाहुड़ की १४३ वीं गाथा है । कुन्दकुन्दाचार्यदेव का भावपाहुड़ है, देखो ! गाथा दी है न ? इसमें तो न्याय, भाव क्या रखा ? भाई ! कि जहाँ आत्मस्वभाव शुद्ध श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र शुद्धता नहीं, वहाँ अकेले व्रत - नियम आदि सब मृतक - अमान्य, अपूज्य है, मुर्दा है। समझ में आया ? यह गाथा है । भावपाहुड़ - १४३ ।
गाथा - ३३
आगे सम्यग्दर्शन का निरूपण करते हैं। पहले कहते हैं कि सम्यग्दर्शनरहित प्राणी चलता हुआ मृतक है । चलता मुर्दा है, चैतन्यप्राण, भावप्राण, आनन्दप्राण जिसके आत्मा के हैं - ऐसे प्राण की प्रतीति- ज्ञान और रमणता प्रगट की है, वह जीवित जीव है । आहा...हा... ! समझ में आया ? इसीलिए सैंतालीस शक्ति में पहली जीवत्वशक्ति ली है न ? जीवत्वशक्ति भगवान आत्मा में है। चैतन्य, दर्शन, ज्ञान, सुख, सत्ता प्राण – ऐसे प्राण का स्वीकार होकर शुद्ध चैतन्य श्रद्धा - ज्ञान - शान्ति प्रगट हुए हैं, उसे यहाँ जीवित जीव कहा जाता है। इसके बिना अकेले पंच महाव्रत के परिणाम, अट्ठाईस मूलगुण का पालन, बारह व्रत का विकल्प, शरीर का ब्रह्मचर्य पालन - ऐसे सब शुभभाव को तो (जैसे) जीवरहित शरीर, वैसे ही चैतन्य शुद्ध निश्चय रहित वह मुर्दा है । आहा... हा... ! समझ में आया ?
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'जीवविमुक्को सबओ' लोक में जीवरहित शरीर को शव कहते हैं, मृतक या मुर्दा कहते हैं। वैसे ही सम्यग्दर्शनरहित पुरुष चलता मुर्दा है । चलता मुर्दा..... दूसरा मुर्दा तो (अर्थी पर ) उठाकर चले ऐसे । अर्थी, अर्थी कहते हैं न ? यहाँ तो यह सिद्ध करना है कि मृतक तो लोक में अपूज्य है, अग्नि से जलाया जाता है...... आहा...हा... ! पृथ्वी में गाढ़ दिया जाता है और दर्शनरहित चलता हुआ मुर्दा लोकोत्तर जो मुनि - सम्यग्दृष्टि उनमें अपूज्य है, वे उनको वन्दनादि नहीं करते हैं। अकेले व्यवहार-व्रतादि के पालनेवाले तो धर्मात्मा वन्दन करने योग्य नहीं मानते हैं - ऐसा कहते हैं । आहा... हा... ! समझ में आया ? क्या कहा यह ?
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मुनि वेष धारण करता है तो भी उसे संघ के बाहर रखते हैं.... जिसे सम्यग्दर्शन का भान नहीं, आत्मा शुद्ध चैतन्यमूर्ति का भान नहीं ऐसे सम्यग्दर्शन के जीवनरहित के
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