________________
२३४
गाथा-३१
___अकेला व्यवहारचारित्र वृथा है वयतवसंजमुसीलु जिय ए सव्वे अकइच्छु। जाण ण जाणइ इक्क परू सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥ ३१॥
जब तक एक न जानता, परम पुनीत सुभाव।
व्रत-तप-संयम शील सब, निष्फल जानो दाव॥३१॥ अन्वयार्थ – (जिउ) हे जीव! (जाव इक्क परू सुद्धउ पवित्तु भाउ ण जाणइ) जब तक एक उत्कृष्ट शुद्ध वीतरागभाव का अनुभव न करे (वय तव संजमु सीलु ए सव्वे अकइच्छु) तब तक व्रत, तप, संयम, शील ये सर्व पालना वृथा है, मोक्ष के लिए नहीं है। पुण्य बाँधकर संसार बढ़ानेवाला है।
३१, अकेला व्यवहारचारित्र वृथा है। देखा? उसमें निमित्त रखा था, अब अकेला व्यवहारचारित्र व्यर्थ है – ऐसा कहते हैं।
वयतवसंजमुसीलु जिय ए सव्वे अकइच्छु।
जाण ण जाणइ इक्क परू सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥३१॥ हे जीव! जिय शब्द पड़ा है न। जिय वह जिय अर्थात् जीव होता है। हे जीव! जाम इक्क परु सुद्धउ पवितु भाउण जाणइ जब तक एक उत्कृष्ट शुद्ध वीतराग.... जाणइ इक्क परु शुद्धऊ पवित्तु भाउ ण जाणइ... जब तक, ऐसा जहाँ तक.... जाम है न? जाम अर्थात् जब तक, ऐसा चाहिए मूल तो। इसमें जाणइ अर्थ किया है, जाम चाहिए, समझ में आया? जाम अर्थात् जब तक। ण जाणइ इक्क परु आत्मा का एक शुद्ध वीतरागभाव; एक भगवान आत्मा का वीतरागभाव, शुद्धभाव, आनन्दभाव - ऐसा एक आत्मा का अन्तरभाव, शुद्ध ध्रुव स्वभाव शाश्वत् आनन्द वीतरागभाव, ऐसे को न जाने वह फिर ण जाणइ आया। समझ में आया? जाणइ ण जाणइ। जब तक भगवान आत्मा के वीतरागस्वभाव, ऐसे शुद्धभाव को न जाने... शुद्धभाव को न