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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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सन्तों के सूर्य-चन्द्र, लाखों साधुरूपी तारे उनमें तीर्थङ्कर जो चन्द्र, उनके मुख से यह वाणी (आयी है)। आहा...हा... ! परन्तु कठिन, बापू! (हमने तो अभी तक ऐसा सुना है कि) यह करो, यह खाओ और यह पिओ, यह छोड़ो, यह त्यागो.... कौन छोड़े, रखे? सुन न ! परवस्तु को कब पकड़ा था, कि उसे छोडे ? समझ में आया?
यहाँ तो अज्ञानभाव, स्वरूप का अभान और राग-द्वेष की जो अस्थिरता पड़ी है, उसे स्वभाव के भान से मिटाया जा सकता है। क्या भगवानभाई! ठीक, अब ठीक हुआ। नहीं तो भागते थे। आवे अवश्य हमारे दाँत के कारण, हैं? दाँत के कारण आवें, समधी को लेकर.... चतुर व्यक्ति हैं, चले और यहाँ फिर प्रेम भी थोड़ा अवश्य, परन्तु बैठे नहीं अन्दर से, वे कहें सामायिक-प्रौषध, प्रतिक्रमण और उपवास करें तो वह कोई धर्म न हो – ऐसा होगा? अरे... ! बापू! भाई! तुझे पता नहीं है। सामायिक कहाँ रहती होगी, यह पता है उसे? सामायिक एक शब्द हुआ तो सामायिक का भाव कहाँ रहता होगा? पता है? और वह भाव क्या होगा? वस्तु होगी? शक्ति होगी? अवस्था होगी? विकार होगा? अविकार होगा? उसका काल कितना होगा? भगवान जाने.... ऐसे बैठे, वह (वह सामायिक)। वह सामायिक नहीं है, सुन न अब! वह सब मूढ़ की, अज्ञानी की सामायिक है। कहो, इसमें समझ में आया? आहा...हा... ! समझे?
(यहाँ चलते विषय में) निमित्त की व्याख्या की है। णवि एस मोक्खमग्गो पीछे आधार दिया है । ३० वीं गाथा का मूल तो यह है कि जिणणाहह वुत्तु। वीतराग परमेश्वर त्रिलोकनाथ तीर्थङ्करदेव ने समवसरण सभा में भगवान ऐसा कहते थे। आहा...हा...! कहो, समझ में आया? है न? जिणणाहह जिननाथ, वीतराग के नाथ अर्थात तीर्थकरदेव.... ऐसा वुत्तु ऐसा कहते थे। वुत्तु अर्थात् कहना। ऐसा कहते थे कि जिसे भगवान आत्मा अनन्त चैतन्य आनन्द के रस से भरा प्रभु का जिसे अन्तर में अनुभव की उग्रता की चारित्रदशा-रमणता होती है, उसके साथ ऐसे निमित्त, उस समय में उग्र चारित्र में निमित्तरूप व्रतादि के परिणाम होते हैं, तो वह क्रम से राग का अभाव करके, शुद्धता को बढ़ाकर
और पूर्ण सिद्धि के सुख को, मुक्ति के सुख को पायेगा। ऐसा जिननाथ ने वर्णन किया है। समझ में आया?